अग्रवाल समाज में मृत्युभोज जैसी परंपरा तो है ही नहीं-अशोक अग्रवाल रायपुर

सक्ती-कभी कभी चर्चा मुखर हो जाती है कि, मृत्यु भोज बंद होना चाहिए इस पर एक परिचर्चा में अपने विचार रखते हुए छत्तीसगढ़ प्रांतीय अग्रवाल संगठन के चेयरमैन अशोक अग्रवाल रायपुर ने मृत्युभोज के संबंध में विशेष जानकारी ,एक स्पष्टीकरण देते हुए बताया कि अज्ञानतावश दिगर समाज के लोग किसी व्यक्ति की मृत्यु के बारहवें दिन ब्राम्हण व बंधु बांधवों के लिए की गई भोजन की व्यवस्था को मृत्युभोज का नाम दे देते हैं,व्यक्ति की मृत्यु उपरांत बारहवें दिन याने श्रद्धांजलि सभा में बंधु बांधव मित्र जब एकत्रित होते हैं, जिसमें कि , अधिकतम लोग बाहर से आते हैं जिनके भोजन की व्यवस्था करना परिजनों का कर्तव्य भी हो जाता है , ऐसी किसी भी आम व्यवस्था को मृत्युभोज का नाम देना उचित नहीं है,तेरह ब्राह्मण एवं आए हुए बन्धु बांधवों के लिए भोजन की की गई व्यवस्था को एक अत्यंत आवश्यक आम व्यवस्था ही समझा जाए, इसका उद्देश्य भी मात्र इतना ही रहता है कि,आज से देवता तुल्य ब्राह्मण हमारे यहाँ भोजन कर रहे हैं और उस घर पर लगा सूतक अब ख़त्म हो चुका है, और वह परिवार अब समस्त मांगलिक कार्यों के लिए समाज की मुख्य धारा में शामिल हो रहा है,लोगों के द्वारा की जा रही फ़िज़ूलख़र्ची और दिखावे की वजह से, अज्ञानता में इसे अन्य समाज के लोग मृत्युभोज क़रार देते हैं,जो उचित नहीं है, उन्होंने आगे कहा कि, हिन्दू धर्म में परंपरा है, मृतक की अस्थियां गंगा जी में विसर्जन करने की। जिसके उपरांत गंगा जी से जो गंगा जी की रेत व गंगाजल लाया जाता है , उसे गंगाजी का प्रतीक मानकर, गंगा पूजन किया जाता है जिसके उपरांत शुद्धीकरण की प्रक्रिया होती है तत्पश्चात, गंगा जी को लगाए हुए भोग को गंगा प्रसादी के रूप में ब्राह्मण और बंधु बांधवों को खिलाया जाता है,यह सारी परम्पराएँ सनातन धर्म में परिवार को एक सूत्र मान कर माला के रूप में पिरोने की प्रक्रिया के रूप में ही देखा जाना चाहिए।

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