आरक्षण की व्यवस्था पर राजनीतिक हितचिंतन को परे रखकर विचार-विमर्श किया जाए

प्रोन्नति में अनुसूचित जाति-जनजाति के आरक्षण को लेकर उच्चतम न्यायालय ने अपने बहुप्रतीक्षित फैसले में यह जो राय व्यक्त की कि आरक्षण से पहले उचित प्रतिनिधित्व के आंकड़े जुटाना जरूरी है और प्रतिनिधित्व के बारे में एक तय अवधि में समीक्षा होनी चाहिए वह समय की मांग के अनुरूप है। यदि आरक्षण की व्यवस्था की गई है तो फिर यह भी देखना आवश्यक है कि उसका लाभ संबंधित वर्गो को सही तरह मिल रहा है या नहीं? इसके साथ-साथ यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि जो समाज में वास्तव में पिछड़े-वंचित तब के हैं उनको सरकारी सेवाओं अथवा शिक्षा में उचित प्रतिनिधित्व मिले।

यह सुनिश्चित करना इसलिए आवश्यक है, क्योंकि लगातार इस तरह की शिकायतें सामने आ रही हैं कि आरक्षित पदों में वांछित भर्तियां नहीं हो रही हैं। ऐसा क्यों है, इन कारणों की तह तक जाने की जरूरत है ताकि इस तरह की शिकायतों का सिलसिला थमे और संबंधित वर्गो को इसका आभास हो कि सामाजिक न्याय की दिशा में निरंतर सही तरीके से कार्य हो रहा है।

यह बार-बार कहा जा चुका है कि जब तक समाज में असमानता है और शोषित-वंचित वर्गो का शिक्षा और सरकारी सेवाओं में उचित प्रतिनिधित्व नहीं है तब तक आरक्षण की व्यवस्था कायम रहनी चाहिए, लेकिन इसी के साथ समय-समय पर इसकी समीक्षा भी होनी चाहिए कि जिन उद्देश्यों के लिए इस व्यवस्था का निर्माण किया गया था उनकी पूर्ति हो रही है या नहीं? इसी तरह यह भी देखे जाने की जरूरत है कि आरक्षण की व्यवस्था से किन वर्गो को कितना लाभ मिला है? इस सबकी समीक्षा करने में हर्ज नहीं, क्योंकि यदि समीक्षा सही तरह होगी तो आरक्षण की व्यवस्था में सुधार करने में सहायता मिलेगी। कोई भी व्यवस्था बदलाव के बिना अनंतकाल तक कायम नहीं रह सकती। जो लोग आरक्षण की समीक्षा की चर्चा मात्र से भड़क उठते हैं या दुष्प्रचार करने लगते हैं उन्हें भी यह सोचना होगा कि किसी व्यवस्था की समय-समय पर समीक्षा उस व्यवस्था के हित में ही होती है।

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