विनय प्रकाश तिर्की
(रचनाकार पुस्तक ‘तलाश’ तथा ‘द सिविल सरपेंट्स’ के लेखक हैं)
वैश्वीकरण और इंटरनेट के इस दौर में चीजें बहुत तेजी से बदल रही हैं। समाज की पितृ सत्तात्मक सोच ने सदैव ही पुरुषों को महिलाओं पर वरीयता दी है, आर्थिक भी और सामाजिक भी। विवाह आदि के समय भी हर माता-पिता की सोच होती है कि दामाद उनकी बेटी से ज्यादा पढ़ा-लिखा हो, आर्थिक रूप से बिटिया को स्थायित्व और सुरक्षा प्रदान कर सके। यहाँ तक कि समाज की स्थापित मान्यता के अनुसार कद में भी लड़के को. लड़की से अधिक होना चाहिए, यदि पत्नी अपने पति से कद में लंबी हो तो इसे निंदनीय माना जाता है और ऐसा पति हमेशा हँसी का पात्र बनता है।
वर्तमान परिदृश्य में खुली अर्थव्यवस्था, बेहतर कनेक्टिविटी, विश्व के एक ग्राम होने जैसी अनुकूल परिस्थितियों से नवधनाढ्य वर्ग बढ़ता जा रहा है। शिक्षा के क्षेत्र में लड़कियाँ भी अच्छा प्रदर्शन कर रही हैं, फलस्वरूप अच्छे वेतन में नौकरियों में जा रहीं हैं, उच्चाधिकारी बन रहीं हैं, मल्टीनेशनल कंपनियों में जॉब कर रही हैं जिससे वे पूर्व के मुकाबले आर्थिक और सामाजिक रूप से सुदृढ़ होती जा रही हैं। लेकिन यही अच्छी आर्थिक स्थिति और उच्च शिक्षा सामाजिक ताने-बाने को भी प्रभावित कर रही है और ऐसी उच्च शिक्षित, आर्थिक रूप से संपन्न ऐसी महिलाओं के समक्ष अविवाहित होने का खतरा बढ़ता जा रहा है। यह स्थिति सामान्य नहीं कही जा सकती। सामाजिक समस्या से जुड़े होने के कारण यह मुद्दा गंभीर होने के साथ शोचनीय भी है, यह बदलाव अनोखा भी है। जो हम आज देख रहे हैं उसने सचमुच समाज विज्ञानियों को चिंता में डालने और सोचने पर मजबूर कर दिया है। कई बार उच्च शिक्षित महिलाओं के लिए अपने ही बिरादरी में पर्याप्त रूप से समकक्ष शिक्षित वर नहीं मिलते या मिलने में बहुत कठिनाई होती है, परंतु यही बात कम शिक्षित और ग्रामीण क्षेत्र के महिलाओं के लिए लागू नहीं होती। उच्च शिक्षित और अपने कैरियर पर ज्यादा केन्द्रित महिलाओं के एकल रहने की संभावना काफी ज्यादा होती है। दकियानूसी समाज और परिवार में उच्च शिक्षित और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर महिलाएं अब बंधकर नहीं रहना चाहतीं परिणामस्वरूप परिवार नामक संस्था भी अब खतरे में है।
साधारणतः उच्च शिक्षित महिलाएं जो अपने प्राकृतिक विवाह योग्य वर्षों के दौरान अपनी शिक्षा और कैरियर पर ही ज्यादा ध्यान केंद्रित करती हैं वे विवाह को लेकर जल्द ही कठिनाइयों का सामना करती हैं, और फिर जब विवाह करने का निर्णय लेने की स्थिति में आती हैं तो उनके मानक, ऊँचे होते हैं। तथ्य यह भी है कि उच्च शिक्षा प्राप्त या उससे कम शिक्षा प्राप्त महिलाओं की तुलना में सुशिक्षित महिलाओं के विवाहित होने और विवाहित बने रहने की संभावना कहीं अधिक होती है। बहुत सी महिलाओं को ऐसे पुरुष कतई पसंद नहीं होते हैं जो उनसे कमाई या शिक्षा-दीक्षा में कम है। ऐसे कई मामले हैं जहाँ ऐसी जोड़ियों के विवाह के कुछ वर्षों बाद ही संबंध विच्छेद होते देखे गए हैं, इसलिए कुछ महिलाएँ पत्नी बनने के बजाय अकेले रहना पसंद करती हैं। कई बार पुरुष और महिलाएँ शिक्षा को एक समान महत्व नहीं देते। अधिकांश महिलाएँ ऐसा पुरुष चाहती हैं जो कम से कम उनके जितना योग्य हो।
अधिकांश महिलाएं अपने पति को अपने से निम्नतर पद पर देखकर असहज महसूस करती हैं या रिश्ते से दूरी बना लेती हैं। भारतीय पुरुष प्रधान समाज में लड़कों को पारंपरिक रूप से कमाने और आगे बढ़ने वाला माना गया है। स्थिति और जटिल बन जाती है जब महिला खुद ज्यादा सफल हो जाती है, और उसका पति भारतीय परिवेश में उस मर्द वाली सामाजिक छवि को पूरा नहीं कर पाता, जो समाज में अभी भी बनी हुई है। कई बार पति भी अपनी पत्नी की सफलता से खुद ही असहज हो जाता है, जिससे रिश्ते में तनाव आता है। वहीं कुछ महिलाएं चाहती हैं कि उनका जीवनसाथी उनसे आगे या कम से कम बराबरी पर हो, जिससे उन्हें खुद को लोगों के सामने साबित करने की जरूरत न पड़े। समाज धीरे-धीरे बदल रहा है, और अब ऐसे रिश्तों में कटुता और अलगाव काफी हद तक हावी होता जा रहा है। ये सब घटनाएं इस बदलते परिवेश का प्रतिबिंब ही है।
भारतीय परिपेक्ष में मुस्लिम परिवारों में भी सैय्यद और गैर सैय्यद परिवारों में विवाह में समस्या देखी गई है। सैय्यद मुस्लिमों को पैग़म्बर मुहम्मद साहब के वंशज माना जाता है। कुछ परिवारों में यह धारणा होती है कि पैग़म्बर के वंशजों को बराबर नस्ल में ही शादी करनी चाहिए, जिससे वंश की पवित्रता बनी रहे। वहीं गैर सैय्यद परिवार, सैय्यद परिवार की कन्या से विवाह को लेकर संशय में रहते हैं कि पैगंबर साहब के वंश की कन्या से घरेलू कार्य हेतु कैसे कहा जाए, कहीं हमसे पैग़म्बर की नस्ल की शान में कोई गुस्ताखी ना हो जाए। इस्लामी शिक्षाओं के विरुद्ध होने के बावजूद यह सोच एक प्रकार की भारतीय सामाजिक ऊँच-नीच की मानसिकता को दर्शाती है।
महिला शिक्षा के तमाम सकारात्मक पक्षों के बावजूद कई नकारात्मक चुनौतियाँ भी हैं। महिला आरक्षण का उद्देश्य समाज में महिलाओं को समान अवसर प्रदान करना और उन्हें मुख्यधारा में लाना है, पर सामाजिक रूप से अच्छी चीजों के अतिरिक्त काफी नकारात्मक चीजें भी उभरकर सामने आ रहीं हैं, जिसे विवाह जैसी सामाजिक संस्था के परिपेक्ष्य में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। शिक्षित महिला को वर मिलना कठिन हो जाता है, जिससे उम्र बढ़ने से विवाह में और समस्याएं आ सकती हैं। कई मामलों में आर्थिक या पेशेवर रूप से स्वतंत्र महिला पारंपरिक घरेलू भूमिका निभाने से इंकार कर रहीं हैं, जिससे पारिवारिक संघर्ष भी हो रहे हैं। यह भी सच है कि उनमें आत्मनिर्भरता बढ़ रही है और निर्णय लेने की क्षमता और आत्मविश्वास में वृद्धि हो रही है जिससे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर महिलाएं परिवार और समाज के लिए बेहतर योगदान भी देती हैं, पर इसके कुछ बिंदु संभावित दुष्प्रभावों की ओर भी ध्यान आकर्षित करते हैं। भारत के मध्यम वर्गीय समाजों में यह स्थिति काफी चिंताजनक होती जा रही है, विशेषकर यह मध्यम वर्गीय शासकीय सेवारत परिवारों की महिलाओं को विवाह की समस्या देखी ही जा रही है।
आदिवासी समुदायों में भी यह एक बड़ी समस्या होती जा रही हैं विशेषकर उनके परिवारों में जिन्होंने ईसाई धर्म अपनाया है। उच्च शिक्षा के कारण नौकरीपेशा परिवारों के लिए यह एक विकराल रूप लेते जा रहा है। एक अनुमान के आधार पर प्रत्येक ऐसे परिवारों में एक विवाह योग्य महिला अविवाहित ही है। कई बार आयोजित किए गए युवक युवती परिचय सम्मेलनों में सौ महिलाओं के अनुपात में दस पंद्रह पुरुष की उपस्थिति इसका जीता जागता उदाहरण है। अविवाहित ईसाई आदिवासी महिलाओं की संख्या दिनों दिन बढ़ती जा रही है। यह एक बहुत गंभीर और विचारणीय सामाजिक विषय है कि औसतन प्रत्येक घर में एक विवाह योग्य युवती अविवाहित बैठी हुई है। आदिवासी समुदाय के कई युवक शिक्षा या रोजगार की तलाश में शहरों या अन्य राज्यों में चले जाते हैं। इससे वे न केवल स्थानीय विवाह परिचय सम्मेलनों से कट जाते हैं, तो वहीं कई मामलों में आधुनिक जीवनशैली अपनाने के कारण युवक अपनी पारंपरिक सामाजिक जिम्मेदारियों से दूर होते जाते हैं। आदिवासी समुदाय में महिलाओं की संख्या पुरुषों से अधिक है यह भी एक कारण है जबकि भारत के ही कुछ राज्यों जैसे हरियाणा और पंजाब में युवाओं की शादी के लिए लड़कियों की कमी एक बड़ी समस्या बनी हुई है। यहाँ कई इलाक़ों में शादी के लिए लड़कियों की तलाश झारखंड, बिहार और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में की जाती है।
ईसाई आदिवासियों में शिक्षा के कारण सामाजिक असमानता के साथ-साथ आर्थिक असमानता भी बढ़ गई है। विडंबना ही है कि जनजातीय समाज में लड़की पक्ष वर ढूंढने के लिए रिश्ता लेकर नहीं जाते, चाहे दोनों पक्ष एक दूसरे को पसंद भी करते हों। समाज से जुड़े होने के कारण यह भी परंपरा है कि केवल माँ-बाप रिश्ता लेकर नहीं जा सकते, इसे अच्छा नहीं माना जाता। उन्हें कुछ अपने निकटतम रिश्तेदारों या समाज से जुड़े और प्रतिष्ठित जिन्हें ‘अगुवा’ का दर्जा हासिल है, को ही ले जाना एक तरह का उनका नैतिक कर्तव्य है क्योंकि यह समाज अभी भी सामाजिक रूप से कबिलियाई संस्कृति का ही रूप लिए हुए हैं, जो उनके खून में रच-बस गया है।
आदिवासी समाजों में विवाह की प्रक्रिया उनके रीति-रिवाजों, परंपराओं और सांस्कृतिक मूल्यों पर आधारित होती है, यह एक बड़ा उत्सव है हालाँकि अलग-अलग समुदायों में प्रथाओं में विविधता पाई जाती है। मान्यता होती है कि अच्छा वर खुद ही लड़की के परिवार से विवाह के लिए संपर्क करेगा। वर्तमान परिदृश्य में अन्य सभ्यताओं से सम्पर्क के कारण यह परम्परा टूट रही है पर पूरी तरह समाप्त नहीं हुई है। आदिवासी समुदायों में दहेज जैसी कोई परंपरा नहीं होती, और विवाह सरल रीति-रिवाजों के साथ होते हैं। इसलिए लड़की पक्ष को रिश्ते बनाने की जल्दबाजी नहीं होती, क्योंकि लड़के का परिवार ही रिश्ता लेकर आता है। यहाँ प्रेम की भी स्वीकृति है, इन समाजों में प्रेम विवाह या आपसी सहमति से शादी की भी परंपरा होती है, यहाँ पारिवारिक प्रतिष्ठा को लेकर हिंसा नहीं होती। इस कारण भी लड़की पक्ष को विवाह तय करने के लिए ज्यादा पहल करने की जरूरत नहीं पड़ती।
कई जनजातीय महिलाएं अब आत्मनिर्भर हो रही हैं, जिससे अधिकांश विवाह को प्राथमिकता देने की बजाय वे भी अन्य समाज की महिलाओं की भांति अब करियर पर ध्यान दे रही हैं। वे पारंपरिक विवाह संबंधों की अपेक्षा आर्थिक तौर पर आधारित रिश्ते ही चाहती हैं और बराबरी के रिश्ते चाहती हैं। पर अविवाहित रहना एक जोखिम के साथ पीड़ादायक ही है न सिर्फ उन्हें, बल्कि उनके माता पिता को, जो वे एक तरह से विवश ही हैं। हालांकि, जनजातीय समाज अन्य सांस्कृतिक संक्रमण के साथ यह एक सामाजिक संक्रमण की भी चपेट में है। उम्मीद ही है कि जनजातीय समाज भी धीरे-धीरे इन बदलावों को स्वीकार करेगा और एक संतुलन स्थापित होगा। फिलहाल जनजातीय परंपरा और सोच वैवाहिक रिश्ते की जटिलताओं का एक गवाह बन गया है और इसी के चलते इन समाजों की बहुत सी महिलाएं अविवाहित रहने को विवश भी हैं और उनके माता पिताअब भी अच्छे वर के इंतज़ार में हैं।