अब सीखना है खुद को पढ़ना… अतुल मलिकराम

अतुल मलिकराम (लेखक और राजनीतिक रणनीतिकार)

“बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय
जो दिल खोजा आपना, मुझसा बुरा न कोय”

संत कबीर दास जी के इस दोहे से हर कोई परिचित होगा। इस दोहे के माध्यम से उन्होंने संसार के सार को पेश करके हम सबके सामने रख दिया है कि शायद कभी न कभी हम इसके मोल को समझेंगे। उनका इस दोहे से आशय था कि जब मैंने (इंसान ने) इस संसार में बुरे लोगों को खोजा, तो मुझे कोई भी बुरा व्यक्ति नहीं मिला। लेकिन जिस दिन अपने अंदर झाँका (अपनी अंतरात्मा में खोजा) तो इस संसार में मुझसे बुरा और कोई नहीं था। मैं हर क्षण, हर समय ‘इसने यह कर दिया’, ‘उसने वह कर दिया’, उसे ऐसा नहीं करना था’, ‘वह ऐसा कर कैसे सकता है’, ‘वह कितना बुरा व्यक्ति है’, ‘उसकी सोच खराब है’, ‘सारी गलती उसी की है’, ‘मैं करता तो गलती नहीं होती’ की उलाढाली में लगा रहा। यहाँ ‘मैं’ का आशय हर उस इंसान से है, जो जीवनभर अपने आप को सही और किसी दूसरे को गलत ठहराने की उधेड़बुन में लगा रहता है। और किनारे होता जाता है हर उस रिश्ते के, जिस पर उँगलियाँ उठाने वह दौड़ता है। यह तो होना ही है, क्योंकि यदि आप हार नहीं मान रहे, तो सामने वाले पक्ष से हार मान लेने की उम्मीद आखिर कर भी कैसे सकते हैं? यही कारण है कि ऐसे लोगों से सबसे पहले उसके अपने ही दूर होते हैं। हमेशा दूसरों में बुराई देखने की प्रवृत्ति वाला इंसान कभी किसी को अपना स्वीकार नहीं कर सकता, इसके चलते अपना मानने वाले उसके सच्चे मित्र भी उससे दूरी बना लेते हैं। जब व्यक्ति खुद से मिलता है या खुद को जानने की कोशिश करता है, तो उसे पता चलता है कि अच्छाई और बुराई दोनों उसके ही भीतर है, उसे

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