पुण्य के अनुरूप मिलती है प्रभु की कृपा – आचार्य सोमशंकर शर्मा

दान हमेशा सुपात्र को ही देना चाहिए…
तिल्दा नेवरा – समीपस्थ ग्राम सांकरा मे जारी भागवत कथा के चौथे दिन बुधवार को भागवत आचार्य पंडित सोमशंकर शर्मा जी, निनवा तिल्दा वाले ने कथा के माध्यम से मानव जीवन मे धर्म की आवश्यकता पर प्रकाश डालते हुए कहा कि मानव कल्याण के लिए धर्म की शरण लेना अत्यंत आवश्यक है। गीता में श्रीकृष्ण का मुख्य उपदेश है कर्म करो। कर्म की जननी धर्म है। इसलिए जीवन में सर्वप्रथम धर्म का होना जरूरी है।भगवान की प्रत्येक लीला समाज में मानवता का संदेश देती हैं। भगवान ने पृथ्वी पर जो भी कार्य किए धर्म की रक्षार्थ किए। जो पृथ्वी पर धर्म रक्षार्थ कार्य करता है उसे गोलोक धाम की प्राप्ति होती है। उस पर भगवान की कृपा निरंतर बरसती है। उन्होंने कहा कि जीवन को संवारने के अनेकों मार्ग है ! उनमे से विनय ऐसा गुण जो मानव मे आ जाये तो जीवन को बदलने मे देर नही लगती ! वह धर्म के द्वारा ही आ सकता है ! मानव के जीवन मे विनय और नम्रता आना जरूरी है वो धर्म के द्वारा ही जीवन मे आएगी ! विनय धर्म भी है और जीवन का आधार भी ! मानव जीवन बहुत ही दुर्लभ है। ये सभी को नहीं मिलता है। उन्होंने कहा कि मानव शरीर न देवताओं को मिलता है और न ही दैत्यों को लेकिन, ये हमें और आपको प्राप्त हुआ है। मनुष्य का जीवन पुण्य का परिणाम है जिसका जितना पुण्य है उसे उतना ही प्रभु के कृपा की प्राप्ति है। मानव को दो अदभुत चीजें प्राप्त हैं जो है हंसी और खुशी प्रकट करने के लिए ताली। हंसो और हंसने दो। इस पर सरकार ने कोई टैक्स भी नहीं लगाया है। आचार्य शर्मा ने गजेंद्र मोक्ष की कथा मे बताया कि गजेंद्र को जब एक ग्राह ने सरोवर मे जल पीने के समय पकड़ लिया तब सहायता के लिए गजेंद्र ने परिवार वालों को पुकार लगाया तो किसी ने भी उनकी सहायता नहीं की. अंत मे जब गजेंद्र निर्बल होकर भगवान को पुकार लगाते हुए एक पुष्प अर्पण किए तो भगवान नारायण स्वयँ ही उनकी रक्षा करने के लिए दौड़ पडे और अपने चक्र से ग्राह को मारकर उस गजेंद्र की रक्षा किए. आचार्य शर्मा ने बताया कि य़ह संसार स्वार्थ से भरा हुआ है. यहा लोग अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए एक दूसरे से रिश्ता बनाए रखता है. और जब मुसीबत की घड़ी आती है तो सब साथ छोड़ देते है. केवल ईश्वर ही एक ऐसा है जो निस्वार्थ भाव से अपने भक्त का साथ देते है. उन्होंने कहा अपने-अपने स्वार्थ के लिए एक-दूसरे से जुड़ाव-लगाव रखते हैं। स्वार्थ पूरा होते ही कोई किसी को पहचानता तक नहीं है। कुछ लोग सोचते हैं कि पद-प्रतिष्ठा, धन-दौलत उसका साथ देगी, उसे सुखी रखेगी। पर ऐसा कुछ भी नहीं है। जिसने त्याग किया, उसको ही सब कुछ मिलता है। आचार्य श्री ने कहा मुसीबत के समय दुनिया मे कोई साथ नहीं देता, केवल अपने स्वार्थ और लोभ करने के लिए मनुष्य एक दूसरे से संबंध बनाए रखते है. ईश्वर को जब निर्मल मन से निर्बल होकर पुकार किया जाये तो ईश्वर किसी ना किसी नर रूप उस जीव की सहायता करने जरूर आते है. आगे आचार्य जी ने कहा कि मन को निर्मल बनाने के बाद ही ईश्वर की भी प्राप्ति होती है. ईश्वर उन्हीं को दर्शन देते हैं जिसके अंदर छल-कपट, ईर्ष्या-द्वेष, घृणा, झूठ-कपट आदि नहीं होते हैं.


मन ही मनुष्य के बंधन और मुक्ति का कारण है। मन से मान लिया जाये तो दुख और यदि मन से किसी भी प्रकार के दुख को निकाल दिया जाये तो सुख ही सुख है। यदि आप मन को एकाग्र कर शांति का अनुभव करें तो आपका निर्मल मन आपको चिरशान्ति प्रदान करेगा और आपको लगेगा कि दुनिया की सबसे बड़ी दौलत आपको मिल गई, जिस सम्पत्ति को हम दुनिया में खोज रहे थे, वह हमें अपने अंदर ही मिल गई। चैन, सुकून, शांति बाहर नहीं वह तो हमारे अंदर ही थी लेकिन हम मृगतृष्णा में भटक कर उसे बाहर खोज रहे थे। मन के शांत होने से अब आनंद ही आनंद है। अब समस्त सुखों का संगम हमारे मन में ही हो गया है और हमारा शुद्ध व शांत मन ही सबसे बड़ा तीर्थ है। ज्ञान-कर्म और भक्ति का परस्पर सम्बन्ध है। इसलिये मानव जीवन में तीनों का सामंजस्य अवश्य होना चाहिये। यदि व्यक्ति कर्म-ज्ञान और भक्ति का संतुलन बनाए रखे तो उसका जीवन व्यवस्थित हो जाता है।इस संसार में सफलता उन्हीं को मिलती है। जो निष्ठापूर्वक कर्मों को सम्पन्न करता है और उसके सभी कर्म बिना फल की इच्छा से प्रभु को समर्पित होते हैं। ऐसा समर्पण ही भक्ति का रूप लेता है और फिर व्यक्ति का परमात्म भक्ति में खोये हुये विशुद्ध मन में ही सभी तीर्थों का वास हो जाता है। आगे आचार्य जी वामन अवतार की कथा बतायी जिसे सुनकर सभी श्रोता गण रोमांचित हो उठे. उन्होंने बताया कि भगवान नारायण ने वामन का अवतार लेकर राजा बलि से तीन पग धरती का दान माँगकर देवताओ का कार्य सिद्ध किया. अंत मे भगवान उनकी दानशीलता से प्रसन्न होकर राजा बलि को सूतल लोक का राजा बना दिया. आचार्य जी ने दान की महिमा बताते हुए कहा कलयुग मे दान करने का बहुत महत्व बताया गया है. उन्होंने बताया केवल सुपात्र को दान देना चाहिए, कुपात्र को नहीं. कुपात्र को दान देने के बाद वह उसका दुरूपयोग करेगा. फिर दिए का दान का पूर्ण फल नहीं मिल पाता.

शेयर करें

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *