विनय प्रकाश तिर्की)
यह विषय न केवल विचारणीय है, बल्कि हमारे समय का एक गहरा बौद्धिक संकट भी है। आज जब तकनीक और सूचना का प्रवाह अपने चरम पर है, तब मनुष्य की पढ़ने-लिखने की प्रवृत्ति दिन-ब-दिन क्षीण होती जा रही है। शिक्षा का जो मूल प्रयोजन था- ज्ञान का अर्जन, चिंतन की क्षमता और विवेक की परिपक्वता, वह अब केवल रोज़गार प्राप्ति का एक साधन बनकर रह गया है। जैसे ही किसी को एक निश्चित नौकरी मिल जाती है, किताबों से उसका रिश्ता धीरे-धीरे समाप्त हो जाता है; जैसे किताबें केवल एक सीढ़ी थीं, जिन्हें पार करने के बाद भुला देना ही नियति हो।
आज साहित्य, दर्शन, समाजशास्त्र और इतिहास जैसे विषय “ग़ैरज़रूरी” ठहरा दिए गए हैं, क्योंकि वे प्रत्यक्षतः नौकरी का वादा नहीं करते। परंतु यह भूल जाना कि बिना अध्ययन और विचार के व्यक्ति केवल एक प्रतिक्रियाशील इकाई बनकर रह जाता है, एक गहरी बौद्धिक हानि है। ऐसे मनुष्य देश-दुनिया की हलचलों, सामाजिक परिवर्तन और ऐतिहासिक सन्दर्भों से कटे रहते हैं, और धीरे-धीरे उनका वैचारिक क्षितिज सिकुड़ने लगता है। सोशल मीडिया विशेषकर व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम, यूट्यूब और फेसबुक ने ज्ञान की गहराई को छीनकर उसे सतही और चटपटे सूचनाओं में बदल दिया है। अब पढ़ने का मतलब मात्र दो पंक्तियाँ पढ़ना, एक रील देखना, या किसी भावनात्मक संदेश पर अंगूठा दबा देना रह गया है। इसमें न तो श्रम है, न मनन की आवश्यकता। इसके विपरीत, पुस्तकें धैर्य माँगती हैं और विचारशीलता की माँग करती हैं। वह समय बहुत पीछे छूटता जा रहा है जब मोहल्लों की गलियों में पुस्तकें किराए पर देने वाली दुकानें होती थीं। बच्चे छोटी-छोटी कहानियों में डूब जाते थे, युवा उपन्यासों में अपनी ही दुनिया रच लेते थे। बुक स्टोर आज एक “डेली नीड्स” की वस्तुएँ बेचने को मजबूर है। आज वह एकाग्रता, वह आसक्ति, धीरे-धीरे विखंडित हो रही है। सोशल मीडिया ने ध्यान को विखंडित कर दिया।
पहले साहित्य, कविता और नाटक केवल बौद्धिक अभ्यास नहीं, मनोरंजन के भी साधन थे। अब उनकी जगह वीडियो गेम्स, वेब सीरीज़, और दस सेकंड की रीलों ने ले ली है। फिर भी, यह परिदृश्य पूरी तरह निराशाजनक नहीं है। आज भी कई युवा पुस्तकें पढ़ रहे हैं, साहित्यिक मेलों में भीड़ उमड़ती है, और डिजिटल मंचों पर कुछ स्पेस अब भी विचार और संवाद के लिए सुरक्षित है। परंतु यह स्वीकारना होगा कि स्थिति पहले जैसी अब नहीं रही। विचार अब एक धीमी प्रक्रिया नहीं, बल्कि एक विस्थापित आदत बनती जा रही है जिसे पुनर्स्थापित करने के लिए गहन सांस्कृतिक प्रयास की आवश्यकता है।
निस्संदेह, वर्तमान समय में शिक्षा ने अपने पंख फैला लिए हैं। ज्ञान का आलोक तीव्रगामी है, और उसकी किरणें अब दूरस्थ वनांचलों तक पहुँच रही हैं। डिग्रियाँ अर्जित हो रही हैं, प्रतियोगी परीक्षाओं की ऊँचाइयाँ छुई जा रही हैं, और विशेष रूप से आदिवासी समुदाय के युवाओं की भी प्रतिभा देश के प्रतिष्ठित पदों पर अपनी पहचान भी दर्ज कर रही है। यह सब एक उल्लासजनक दृश्य है, एक ऐसा क्षितिज जो आशा और आत्मविश्वास से दीप्त है, किन्तु जब हम इस प्रकाश से कुछ हटकर लेखन की ओर दृष्टिपात करते हैं- विचारों के आत्मीय विस्तार की ओर, उन अनुभूतियों की ओर जिन्हें शब्दों में पिरोकर साझा किया जाना चाहिए, इतिहास की गलियों और वर्तमान की जटिल परतों की ओर तो एक गहरी, अव्यक्त और लगभग भयावह चुप्पी घेर लेती है। जैसे शब्दों का संसार कोई दूर का तारा हो, जिसे देखना तो संभव है, पर छू पाना असंभव। इन समुदायों से संचालित कुछ साहित्यिक पत्रिकाएँ आज लेखकों के अभाव से जूझ रही हैं। पचास-साठ पृष्ठों की एक लघु पत्रिका भी निकालना एक कठिन और श्रमसाध्य कार्य बनता जा रहा है। यह संकट मात्र रचनात्मकता का नहीं, बल्कि आत्म-अभिव्यक्ति के प्रति उपेक्षा का भी है, मानो जीवन की बहुरंगी कहानियाँ, संघर्ष और संवेदनाएँ मौन के पट में बँधी हों, और उन्हें मुक्त करने वाला कोई नहीं।
हज़ारों में मुश्किल से चार या पाँच लोग ही ऐसे मिलते हैं जो लेखन से जुड़ाव रखते हों। यह संख्या चौंकाने वाली अवश्य है, पर यह किसी संयोग का परिणाम नहीं, हालाँकि उनके सामाजिक और सांस्कृतिक ढाँचे की जड़ें बहुत गहराई तक फैली हैं। लेखन केवल विचारों की साज-सज्जा नहीं, न ही केवल भाषायी अभ्यास भर है, यह अनुभवों को आत्मसात करने, उन्हें समझने, और फिर उन्हें इस तरह शब्दों में ढालने की साधना के साथ एक भीतरी प्रक्रिया है जिसमें संवेदना और सजगता दोनों अनिवार्य हैं। अध्ययन की निरंतरता, विषय का बोध, और आत्मानुशासन इसकी अनिवार्य शर्तें हैं।
आज की जीवनशैली तेज़, व्यस्त, और तत्काल परिणामों की आकांक्षा से भरी हुई है। ऐसे में लेखन, जो समय, एकांत, और आत्ममंथन माँगता है, स्वाभाविक रूप से कठिन होता जा रहा है। जब शिक्षा आई, तो उसका मूल उद्देश्य आजीविका और सामाजिक प्रतिष्ठा की सीढ़ियाँ चढ़ना था, आत्म-अभिव्यक्ति या सामाजिक विश्लेषण नहीं। भाषा भी एक बड़ी बाधा बनकर सामने आती है। बहुत से लोग अपनी मातृभाषा, क्षेत्रीय भाषा और अंग्रेज़ी के त्रिकोण में झूलते रहते हैं। किसी एक भाषा में पूरी तरह सहज न हो पाने के कारण उनके भीतर के विचार कभी पृष्ठों पर नहीं उतर पाते। पढ़ना और लिखना एक-दूसरे के सहचर अवश्य हैं, परंतु पढ़ना अपने-आप में लेखन की गारंटी नहीं देता। लेखन के लिए एक अलग प्रकार की मानसिक एकाग्रता और आत्मचिंतन की आवश्यकता होती है, एक ऐसा साहस, जिसमें व्यक्ति अपने भीतर की परतों को टटोल सके और फिर उन्हें दूसरों के सामने प्रस्तुत कर सके।
हर वह व्यक्ति जिसने समाज को देखा है, सहा है, और भीतर तक उसे महसूस किया है, वही लिख सकता है। लेखन केवल साहित्य सृजन नहीं, आत्म-पहचान और स्मृति की संरचना का माध्यम भी है। लेखन कठिन अवश्य है, लेकिन असंभव नहीं। जब तक लोग इसे अपने जीवन का अंग नहीं बनाते, तब तक वे सिर्फ पढ़े-लिखे ही रह जाएँगे, अपने अनुभवों के साक्षी कभी नहीं बन पाएँगे, और न ही भावी पीढ़ी के लिए कोई बौद्धिक विरासत छोड़ पाएँगे। जो लिखा जाता है, वही टिकता है- यादें, पीड़ाएँ, व्यथा, प्रतिरोध और प्रेम, सब कुछ।
दुर्भाग्यपवश, बहुत से लोग और विशेषतः आदिवासी समाज लेखन और लेखकों के महत्व को या तो समझ नहीं पाते या समझकर भी अनदेखा कर देते हैं। उनके लिए लेखन मामूली कर्म ही है। उनके लिए लेखक कोई दिशा-दर्शी नहीं, बस एक ‘कुछ ज़्यादा सोचनेवाला व्यक्ति’ होता है, जिसकी बातें ‘जरूरत से ज्यादा’ गहरी होती हैं और जिसका मौन भी उन्हें चुनौती देता है। आदिवासी समाज, जो सदियों से वाचिक परंपरा का धनी रहा है, आज जब शब्द को लिपिबद्ध रूप देने का अवसर पाता है, तब वह स्वयं अपने ही शब्द-धर्मियों को तिरस्कृत करने लगता है। लेखक को वह या तो उपेक्षा की दृष्टि से देखता है या फिर उसके प्रति जलन से भर उठता है। उसकी कलम को शक की निगाह से तौला जाता है, और उसकी सोच को समाज-विरोधी या ‘अपने से अलग’ ठहरा दिया जाता है।
यह विडंबना ही है कि जिस समाज को सबसे ज़्यादा अपनी कहानियों, अपने, अनुभवों,अपनी अस्मिता को बचाने की ज़रूरत है, वही समाज अपने लेखकों को सबसे पहले अकेला कर देता है। लेखक की पीड़ा यह नहीं कि उसे सम्मान नहीं मिला, बल्कि यह है कि वह अपने ही लोगों की आत्मा को शब्द देना चाहता है, पर उसकी आवाज़ उन्हीं के कानों तक नहीं पहुँचती। लेखन कोई व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा नहीं, यह तो सामाजिक ज़िम्मेदारी है, पर जब समाज ही अपने लेखक को ‘अहम’ या ‘दंभपूर्ण’ मान ले, तब वह अपने भविष्य को चुप्पी के गर्त में धकेल देता है।
इसी के संदर्भ में एक पीड़ादायी घटनाक्रम का प्रत्यक्ष गवाह रहा हूँ। चर्च के मुख्य द्वार से निकलते ही वह बुज़ुर्ग मानो अंगार हो गए हों। आँखों में तमतमाहट, चेहरा तपते तवे-सा। उनके होंठों से एक तीखा वाक्य झर पड़ा- “किताब लिख देने से क्या हो जाता है?” अंदर फादर ने होली मास के बाद एक किताब का ज़िक्र किया था- किसी नए लेखक की कृति, जिसे खरीदने की अपील उन्होंने विश्वासियों से की थी। पर उस नाम ने जैसे किसी पुराने ज़ख्म पर खुरच लगा दी हो। किताब किसी और की नहीं, उनके पुराने प्रतिद्वंदी की थी- वही जो वर्षों पहले उसी विभाग में उनके साथ कार्यरत था, और जो बाद में वाणिज्य विभाग का डिप्टी कमिश्नर बन गया था, जबकि ये खुद पदोन्नति की सीढ़ियाँ चढ़ने से वंचित रह गए थे। वो किताब एक रचना नहीं थी, उनके लिए तो एक ललकार थी, एक चोट, एक स्मृति कि कौन पीछे रह गया और कौन आगे निकल गया।
सत्तर पार कर चुके इस व्यक्ति के भीतर ईर्ष्या की आग अब भी वैसी ही धधक रही थी, जैसी शायद तब जली थी जब उनके प्रतिद्वंदी को पहला प्रमोशन मिला था। दुश्मनी समय के साथ शांत होने के बजाय और सुलग उठी थी। लेखक बन जाना, उन्हें लगता था जैसे कोई विजय-पताका फहरा देना। लेकिन क्या सचमुच लेखक होना इतना सरल है? जिसने लिखा, उसने अपने भीतर की आग को शब्दों में ढाला। और जो जलता रहा, उसने उस आग को अपने भीतर ही सुलगने दिया, दूसरों को जलाने की चेष्टा में खुद को ही भस्म करता रहा।
अब वह केवल अकेला नहीं जल रहा था- उसका पूरा परिवार लेखक के परिवार से मुख़ालफ़त बरतता, हर मोड़ पर शत्रुता को निभाता। शब्दों की ताक़त वह क्या जाने, जो अब भी किसी दूसरे की कलम से हारता जा रहा है, जो खुद चार पंक्ति लिखने में सक्षम न हो।
हिंदी लेखन का एक स्याह रेखाचित्र खींचा जाए तो बड़ा विचित्र लगता है। आज हिंदी लेखन का परिदृश्य किसी उजाड़ स्टेशन की तरह प्रतीत होता है- जहाँ कोई गाड़ी ठहरती नहीं, और जो ठहरती है, वो भी खाली डिब्बों के साथ। पुराने के मोह में जकड़े लोग हर नये को शक की निगाह से देखते हैं, जैसे नवीनता कोई अपराध हो। ‘कुछ नया नहीं लिखा जा रहा’, यह रुदन इतना दोहराया जा चुका है कि अब यह स्वयं एक जर्जर पाठ बन चुका है। हिंदी की किताबें कोई खरीदना नहीं चाहता, और जो खरीदता है, वह अक्सर न पढ़ने की सौगंध खाकर ही खरीदता है। फेसबुक पर एक सूचना आती है- किसी लेखक की नई किताब छपी है। आस-पास के लोग ‘संबंधों के लिहाज़’ में क़िताब खरीद तो लेते हैं, परन्तु पढ़ने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। किसी दिन यदि आप उत्साह से प्रतिक्रिया पूछ बैठें, तो उत्तर मिलता है, – “अभी समय नहीं मिल पाया”- वह उत्तर नहीं होता, एक भावनात्मक चाबुक होता है, जिसे झेलना हर लेखक का दुर्भाग्य बन चुका है। कुछ लोग शरमाने की औपचारिकता निभाते हैं, तो कहते हैं- “अभी तो बस एक चैप्टर ही पढ़ा है… बहुत अच्छा लिखा है।” पर वह “अच्छा” इतना खोखला होता है कि उसमें भावों की कोई गूँज नहीं होती।
किताब पढ़कर बिना माँगे प्रतिक्रिया देने वाले लोग अब साहित्यिक जीवाश्म बन चुके हैं- दुर्लभ और लुप्तप्राय। और जो प्रतिक्रिया देते हैं, वे भी प्रायः लेखक ही होते हैं- एक अनकहा लेन-देन का अनुबंध निभाते हुए। “मैं तुम्हारी तारीफ़ करूँ तुम मेरी करो” साहित्य का यह आदान-प्रदान अब भावनाओं का नहीं, सौदों का बाज़ार बन चुका है।
इसी व्यथा में एक रोचक किन्तु करुण कथा है। मेरे एक लेखक मित्र हैं – लगभग दस-बारह किताबें लिख चुके हैं। उनकी कहानियाँ नेपाल, बांग्लादेश, पाकिस्तान, मलेशिया, जर्मनी तक प्रकाशित होती रही हैं। उन्होंने एक बार कहा था- “मुफ़्त की चीज़ की कोई कीमत नहीं होती। किताब सोच-समझकर ही दो। उसे दो जो सचमुच पढ़े। यदि सौ में एक भी पढ़ ले तो वही आपकी सफलता है।” पर उनकी गूढ़ बात मुझ कमबख़्त को समझ में ही नहीं आयी थी। पर फिर उन्होंने जो किस्सा सुनाया, वह किसी तगड़े व्यंग्य की तरह सीधा हृदय पर प्रहार करता है। उनके एक मित्र ने बार-बार आग्रह करके उनसे किताब ले ली। लेखक मित्र को पहले ही आशंका थी- “ये साहब शायद ही पढ़ेंगे, पर चलो अपनी पुस्तकालय की शोभा भी बढ़ाएँगे तो संतोष ही होगा।” महीनों बीत गए। एक दिन वे सड़क किनारे एक पुराने किताबों की दुकान के पास से गुजर रहे थे। रद्दी की टोकरी में कुछ किताबें अंतिम साँसे गिन रही थीं… और वहीं पड़ी थी उनकी वही किताब- धूल में सनी, भीगे कागज़ों के बीच, लावारिस सी… जैसे किसी साहित्यिक शव का अंतिम संस्कार भी अधूरा रह गया हो। यह दृश्य केवल उस लेखक की नहीं, हिंदी साहित्य की वर्तमान स्थिति का प्रतीक है- जहाँ शब्दों की मृत्यु पर भी कोई शोकगीत नहीं गाता।
यह हिंदी लेखन का आज का यथार्थ है- एक ऐसा चेहरा जो आईने में धुँधलाता जा रहा है। इसमें एक भाग है पाठकों का, जो अब पूरी तरह समर्पित नहीं, बल्कि आंशिक रूप से बेपरवाह हैं; उन्हें लेखकों की पीड़ा, भाषा की तपिश और विचारों की सूक्ष्मता छू नहीं पाती। दूसरा भाग उन लेखकों का है, जो निरंतर लिखते हुए भी भीतर ही भीतर उदासी से भरते जा रहे हैं- न सिर्फ पाठकों की कमी से, बल्कि उस संवादहीनता से भी, जिसमें अब लेखन गूँजता नहीं, बस खो जाता है। और जो थोड़ा बहुत बचा है, वह है हिंदी लेखक का आत्म-सम्मान जिस पर जंग की परतें चढ़ चुकी हैं। वह किसी पुरानी टोकरी में पड़ी अंतिम साँसें लेता लकड़ी की खड़खड़ाहट-सा प्रतीत होता है। न वह पूर्णतः मरता है, न ही पूरी तरह जीवित रह पाता है।
आजकल कई हिंदी लेखक अपनी रचनाओं का अंग्रेज़ी में अनुवाद करवा रहे हैं। इसका कारण सिर्फ भाषा बदलना नहीं है, बल्कि अपनी बात उन पाठकों तक पहुँचाना है जो सच में सुनते और समझते हैं। हिंदी में लिखी पुकार अक्सर बिना जवाब के लौट आती है, लेकिन अंग्रेज़ी में वही बात कुछ लोगों तक पहुँचती है। आज की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि खुद हिंदी लेखक भी यह मानने लगे हैं कि अंग्रेज़ी पढ़ने वाले लोग ज्यादा विचारशील, प्रश्नाकुल और संवादी होते हैं। वहीं, हिंदी पाठकों में विचारों की जो भूख और जिज्ञासा कभी हुआ करती थी, वह अब धीरे-धीरे कम होती जा रही है। यह हिंदी लेखन की एक चुप त्रासदी है- जिसे शब्दों में कहना मुश्किल है, लेकिन उसे समझना और स्वीकार करना शायद उससे कहीं अधिक ज़रूरी है।
(रचनाकार किताब ‘तलाश’ तथा ‘ द सिविल सरपेंट्स’ के लेखक हैं।)