आत्मा का वस्त्र शरीर ही तो है -प्रपन्नाचार्य जी महाराज

प्रेमामृत प्रकट करने के लिए विरह आवश्यक है

शिवरीनारायण –– गुरु, माता, पिता और भाई इन चारों के घर में व्यक्ति को बिना बुलाए ही जाना चाहिए लेकिन उस स्थान पर कभी नहीं जाना चाहिए जहां कोई विरोध मानता हो। आवत ही हरषै नहीं, नैनन नहीं सनेह। तुलसी तहां न जाइए, कंचन बरषै मेंह।। अर्थात जिस स्थान पर कोई आप से विरोध मानता हो ऐसे स्थान में यदि स्वर्ण का बारिश भी हो रहा हो तब भी वहां भूल कर भी नहीं जाना चाहिए, यह बातें श्रीधाम अवधपुरी उत्तर प्रदेश से पधारे हुए स्वामी रत्नेश प्रपन्नाचार्य जी महाराज ने व्यासपीठ की आसंदी से शिवरीनारायण महोत्सव के तहत श्रोताओं को श्रीमद् भागवत महापुराण की कथा का रसपान कराते हुए अभिव्यक्त किया। उन्होंने कहा कि जब आपके गुरु के घर में उत्सव जा महोत्सव हो रहा हो तब वहां किसी भी तरह के निमंत्रण की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए यही शास्त्र का विधान है। श्रोताओं को सतर्क करते हुए उन्होंने कहा कि आप सावधान हो जाएं, किसी भी जीव से आसक्ति कभी मत पालना नहीं तो मृत्यु के समय जैसी आपकी मती होगी वैसे ही आप की गति बनेगी, जो लोग कुत्ते पालते हों और उनमें आसक्ती हो गई हो? तो सुन लो उनका अगला जन्म कंफर्म हो गया! मनुष्य के अंदर का आनंद उसे स्वस्थ रखता है,बहुत से महात्मा आहार नहीं लेते या बहुत साधारण आहार लेते हैं। कुछ पत्तियां खाकर के ही रह जाते हैं और पूरे स्वस्थ रहते हैं। संतो के जीवन में अनुकूल और प्रतिकूल दोनों ही परिस्थितियां आती है। जब जीवन अनुकूल हो जाए तो वे इसे ठाकुर जी की कृपा और प्रतिकूल हो जाए तो इच्छा मान लेते हैं। संत वे हैं जो अपनी वाणी से किसी को दुख नहीं पहुंचाते। हंस और परमहंस इन दोनों शब्द का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा कि -हंस नीर और छीर विवेकी होता है किंतु परमहंस वह है जिसे नीर-छीर के भेद करने की आवश्यकता ही ना हो! जो भागवत भक्ति ने पक जाए वे ही परमहंस हैं। जब मोह समाप्त हो जाए तब हमें आत्मज्ञान हो जाएगा! समझ में आ जाएगा कि हम ईश्वर के ही अंश हैं और मोक्ष के अधिकारी हैं। उन्होंने कहा कि कुछ लोग स्वर्ग और नरक को काल्पनिक मानते हैं। नरक 28 प्रकार के होते हैं। नरक एक प्रकार का धोबी घाट ही है, जैसा आप का पाप होगा! वैसे ही आपको सजा भी मिलेगी और धोबी के कपड़े की तरह पटक -पटक कर साफ करके पुनः आप जिस लोक से आए हैं वहां भेज दिए जाएंगे। यह शरीर एक तरह से आत्मा का वस्त्र है।

यदि प्रेमामृत को प्रकट करना है तो विरह आवश्यक है। रोज -रोज की मिलन से विकर्षण हो सकता है किंतु विरह में प्रेम पकता है। सूर्य, पवन, धरती, और भगवान यह किसी के प्रति भेद नहीं रखते इसलिए इन्हें समदर्शी कहा जाता है। हम अमर धरमा हैं कि मरण धरमा यह प्रश्न सभी के मन में उत्पन्न होता है। यदि आप अपने आप को शरीर मानते हो तो मरने वाले हैं और यदि आपने अपने आप को आत्मा मान लिया तो आप अमर धरमा हैं। भागवत भक्तों के हृदय में कभी भेदभाव नहीं होता। भक्ति दिखाने के लिए नहीं बल्कि स्वयं आत्म कल्याण के लिए होनी चाहिए। कुछ लोग संसार को दिखाने के लिए नाचते हैं किंतु हमें ईश्वर को रिझाने के लिए नृत्य करनी चाहिए। जब भक्ति प्रबल होती हैं तो देह से मोह चली जाती हैं। भगवान को प्राप्त करने की नौ सीढि़यां हैं- श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पाद सेवन, अर्चन, वंदन आदि इनमें से किसी एक को यदि हम अपने जीवन में उतार लेते हैं तो मोक्ष के अधिकारी हो जाते हैं। हर व्यक्ति अपने जीवन में सुख शांति और समृद्धि चाहता है ध्यान रहे हैं धर्म की 13 पत्नियां हैं- श्रद्धा, मैत्री, दया, शांति, तुष्टि, पुष्टि, क्रिया, उन्नति, बुद्धि, मेधा, तितिक्षा, मूर्ति और सती। यदि आप धर्म के रास्ते पर चलेंगे तो आपको अलग से शांति की खोज करनी नहीं पड़ेगी। सब कुछ आपके पास चली आएऐगी।

अटल बिहारी विश्वविद्यालय बिलासपुर के कुलपति हुए शामिल

शिवरीनारायण मठ महोत्सव के उपलक्ष में आयोजित श्रीमद् भागवत महापुराण की कथा श्रवण करने के लिए चतुर्थ दिवस अटल बिहारी विश्वविद्यालय बिलासपुर के कुलपति, राजीव लोचन मंदिर ट्रस्ट राजिम एवं जैतू साव मठ रायपुर के सभी सदस्य तथा पदाधिकारी गण उपस्थित हुए।

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