मुखर्जी जी की पुण्यतिथि पर विशेष– अंचल के प्रतिष्ठित साहित्यकार एवं भाजपा नेता रमेश सिंघानिया की कलम से डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी जी का जीवन परिचय, असीम साहस, त्याग व बलिदान की मूर्ति थे डा. मुखर्जी

सक्ति-भारतीय राजनीति में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी को दो बातों के लिए हमेशा याद किया जाता रहेगा। पहला जनसंघ जैसे प्रखर राष्ट्रवादी राजनैतिक दल की स्थापना के लिए तथा दूसरा कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग बनाए रखने हेतु अपने अद्भुत बलिदान के लिए,19 वीं सदी के अंत में 6 जुलाई को जन्मे डॉक्टर मुखर्जी ने अपने जीवन में समाज के समक्ष स्वच्छ और उच्च मापदंडों की स्थापना की। उन्हें स्वतंत्र भारत का ऐसा पहला मंत्री होने का गौरव प्राप्त है जिन्होंने सैद्धांतिक कारणों से मंत्री पद का परित्याग कर दिया। पंडित नेहरु के मंत्रिमंडल में केंद्रीय उद्योग एवं वाणिज्य मंत्री रह चुके डॉक्टर मुखर्जी कभी कांग्रेस में नहीं रहे। कश्मीर के मामले में हिंदू जनता की तकलीफों और पंडित नेहरू की नीतियों से क्षुब्ध होकर डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने मंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया

अंचल के प्रतिष्ठित साहित्यकार,वरिष्ठ भाजपा नेता रमेश सिंघानिया ने 23 जून को डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी की पुण्यतिथि के अवसर पर एक भेंटवार्ता में बताया कि आज जबकि राजनीति में सिद्धांतों की बात बेमानी होती जा रही है, नैतिकता कोसों दूर हो चुकी है, राजनीति का अपराधीकरण एक समस्या बनकर छा गया है, तरह -तरह के भ्रष्ट आचरण में लिप्त नेता पदों पर चिपके हुए हैं ऐसा अनुपम त्याग बहुत कम परिलक्षित होता है,डॉक्टर मुखर्जी एक सफल मंत्री थे वे एक दक्ष प्रशासक, सांसद, शिक्षाविद और बेजोड़ वक्ता थे। मंत्री पद पर बने रहने के लिए उन पर दबाव भी डाला गया परंतु उन्होंने अपनी आत्मा की आवाज और राष्ट्रहित के साथ समझौता करना पसंद नहीं किया। 8 अप्रैल 1950 को उन्होंने मंत्रिमंडल से अपना त्यागपत्र दे दिया तथा 18 अप्रैल को संसद में इस संबंध में अपना एक वक्तव्य भी दिया,21 अक्टूबर 1951 को नई दिल्ली में अखिल भारतीय जनसंघ की स्थापना हुई। डॉक्टर मुखर्जी विधिवत इसके अध्यक्ष चुने गए। अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने जनसंघ के निर्माण की आवश्यकता और उसके सिद्धांतों पर प्रकाश डालते हुए कहा कि जनसंघ एक जिम्मेदार लोकतांत्रिक राजनीतिक दल के रूप में कार्य करेगा। वह केवल विरोध के लिए विरोध नहीं करेगा। सरकार के राष्ट्रहित के अनुकूल किए गए कार्यों का समर्थन भी करेगा। (प्रसंग वश यहाॅं यह उल्लेख करना उचित होगा कि सन् 52 के पहले आम चुनाव में 3 सीट पाने वाली भारतीय जनसंघ अभी भारतीय जनता पार्टी के रूप में 300 से अधिक सीटें प्राप्त कर केंद्रीय सत्ता में बैठी है और अपनी विचारधारा के अनुरूप कार्य कर रही है

सिंघानिया ने ने कहा कि धारा 370 की समाप्ति और राममंदिर का निर्माण पार्टी का बड़ा कदम है और अब वह समान नागरिक संहिता लागू करने की दिशा में आगे बढ़ रही है।) डॉक्टर मुखर्जी 33 वर्ष की उम्र में देश के सबसे बड़े विश्वविद्यालय कोलकाता यूनिवर्सिटी के सबसे कम उम्र के कुलपति रह चुके थे। हिंदू महासभा के अध्यक्ष पद का दायित्व भी उन्होंने संभाला था। संसदीय अनुभव, योग्यता और राजनीतिक सूझबूझ के धनी डा. मुखर्जी ने संसद में नेशनल डेमोक्रेटिक पार्टी बनाकर विरोधी दलों का वैचारिक आधार पर ध्रुवीकरण का पहला सफल प्रयास किया। उन्हें पंडित नेहरू के विकल्प के रूप में देखा जाने लगा। डॉक्टर मुखर्जी का कहना था की “दलों के संघर्षपूर्ण दौर के समय किनाराकशी करने वाले लोग उसके उत्कर्ष के समय अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए उसके चारों तरफ मंडराने लगते हैं, ऐसे लोग दलों के पराभव का कारण बनते हैं,डॉक्टर मुखर्जी में राष्ट्र की एकता और अखंडता के प्रति पूर्ण समर्पण की भावना थी। कश्मीर के मामले में अपने महान बलिदान के द्वारा उन्होंने अपने इस समर्पण को व्यक्त भी किया। “एक देश में दो विधान, दो निशान, दो प्रधान नहीं चलेंगे नहीं चलेंगे” 1953 के कश्मीर आंदोलन से संबंधित यह नारा अमर शहीद डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी की यादगार का स्थायी प्रतीक बन चुका है। डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में भारतीय जनसंघ ने कश्मीर में चल रही शेख अब्दुल्ला की षड़यंत्रकारी गतिविधियों के खिलाफ देशव्यापी आंदोलन का बिगुल फूॅंक दिया। एक देश में दो विधान दो निशान दो प्रधान नहीं चलेंगे नहीं चलेंगे के गगन भेदी नारों से देश गूंज उठा। शेख अब्दुल्ला कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग बनाने के लिए तैयार नहीं था। पंडित नेहरू के कश्मीर में जनमत संग्रह संबंधी वक्तव्य से उसे बल मिला। वह कश्मीर के लिए ऐसी संवैधानिक स्थिति चाहता था जो कश्मीर को हिंदुस्तान के संरक्षण में एक ऐसा अर्ध स्वतंत्र राज्य बना दे जिसको वह अपनी सल्तनत बना सके। उन दिनों जम्मू-कश्मीर जाने के लिए सुरक्षा मंत्रालय से पासपोर्ट लेना पड़ता था। आंदोलन के दौरान हजारों दीवाने जेल की सलाखों के अंदर बंद हुए। स्वयं डॉक्टर मुखर्जी ने कश्मीर में जाकर सत्याग्रह किया उनका कहना था कि जम्मू-कश्मीर हिंदुस्तान का अभिन्न अंग है। भारतीय नागरिक और सांसद होने के नाते देश भर में निर्बंध विचरण उनका मौलिक अधिकार है

कश्मीर प्रवेश करने पर उन्हें बंदी बना लिया गया तथा 23 जून 1953 को जेल में षडयंत्र पूर्वक उनकी हत्या कर दी गई। पर उनके बलिदान ने कश्मीर को बचा लिया। शेख अब्दुल्ला के षड़यंत्र का पर्दाफाश हुआ। वह देशद्रोह के आरोप में सीखचों के अंदर पहुंच गया। चक्रांकित तिरंगा शान के साथ कश्मीर में लहराने लगा। भारतीय नागरिकों का पूरे हिंदुस्तान में स्वतंत्र आवाजाही का अधिकार कश्मीर में भी लागू हो गया। डॉक्टर मुखर्जी ने प्राणों की बाजी लगाकर शेख अब्दुल्ला के षड़यंत्र को विफल कर दिया और कश्मीर को बचा लिया। डॉक्टर मुखर्जी के बलिदान ने दिखला दिया की एकता और अखंडता किसी सत्ता को बरकरार रखने के लिए महज वोट बटोरू नारा नहीं है। इसके लिए असीम साहस, त्याग और बलिदान की आवश्यकता होती है। डॉक्टर मुखर्जी एकता और अखंडता के सच्चे पुजारी देशभक्त और कर्मयोगी थे। उन्होंने जीवन भर मातृभूमि की एकता और अखंडता के लिए संघर्ष किया। राष्ट्रवाद, लोकतंत्र, जनकल्याण और राष्ट्र की एकता उनके जीवन का लक्ष्य था। उन्होंने जम्मू कश्मीर राज्य को शेष भारत के साथ मिलाने के लिए स्वयं को कटिबद्ध कर लिया था। इसके लिए उन्हें जो भी कष्ट मिले उन्होंने हंसते-हंसते स्वीकार किया और भारत माता के चरणों में अपने प्राण भी अर्पित कर दिए|

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