परमार्थ की भावना मे ही मानव जीवन सार्थक है –  आचार्य नंदकुमार शर्मा

तिल्दा नेवरा – ग्राम जोता मे जारी भागवत कथा के तीसरे दिन रविवार को भागवत भूषण आचार्य नंदकुमार शर्मा जी निनवा वाले ने कथा के माध्यम से कहा कि मनुष्य रूप में जन्म लेने मात्र से जीव को मानवता प्राप्त नहीं होती। यदि मनुष्य रूप में जन्म लेने के बाद भी किसी में स्वार्थ की भावना भरी हुई है तो वह मानव होते हुए भी राक्षसी वृत्ति के पायदान पर खड़ा रहता है। यदि व्यक्ति स्वार्थ की भावना को त्याग कर हमेशा परमार्थ भाव से जीवन यापन करे तो निश्चित रूप से वह एक अच्छा इंसान है। परमार्थ की भावना ही व्यक्ति को महान बनाती है। आचार्य जी ने कहा कि जब मनुष्य जीवन मे स्वार्थ आता है तो वह केवल अपने लाभ और स्वार्थ पूर्ति के बारे मे ही सोचता है. दूसरे को हानि पहुचा कर भी स्वार्थ पूरा करने मे लगा रहता है. जब तक व्यक्ति का स्वार्थ पूरा नहीं होता तब तक वह अपना अपना करते रहता है जिस दिन व्यक्ति का स्वार्थ पूरा हो जाता है उस दिन वह उसे पराया समझने लगता है. आगे कहा कि संतों का जीवन निर्मल होता है. उनके लिए कोई अपना नहीं कोई पराया नहीं होता. सबको वह एक दृष्टि से ही देखता और मानता है. संत का हृदय मक्खन की तरह कोमल होता है. सच्चा संत सभी के प्रति निरपेक्ष और समान भाव रखता है, क्योंकि सच्चा संत, हर इंसान में भगवान को ही देखता है, उसकी नजर में हर व्यक्ति में भगवान वास करते हैं, इसलिए उस पर किसी भी तरह के व्यवहार का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। सच्चा संत वही है, जिसने अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण प्राप्त कर लिया हो और वह हर तरह की कामना से मुक्त हो।

साधु प्रेम-भाव का भूखा होता है, वह धन का भूखा नहीं होता। जो धन का भूखा होकर लालच में फिरता रहता है, वह सच्चा साधु नहीं होता। ईश्वर के उद्देश्यों और भावनाओं से जुड़ा हुआ संत ही सच्चा संत है। आगे आचार्य जी अजामिल की कथा मे बताया मे कि अजामिल ब्राह्मण कुसंगति मे आकर मदिरा पान करके अपने जीवन को बर्बाद कर दिया.. अनेक प्रकार के पाप कर्म और दुष्कर्म मे लिप्त होता गया. उन्होंने कहा कि मदिरा व्यक्ति के जीवन को नरक बना देती है. मदिरा के कारण व्यक्ति का धन, दौलत शरीर, मान सम्मान और चरित्र सब कुछ चला जाता है. इसीलिए मनुष्यत को मदिरा का सेवन कभी नहीं करना चाहिए. आचार्य शर्मा ने कहा कि अजामिल ब्राह्मण मरने के समय एक बार नारायण नाम लिया और भव सागर से पार हो गया.. उन्होंने बताया जो जीव मरण काल मे एक बार भगवान के किसी भी नाम का उच्चारण करता है तो वह पापी से पापी व्यक्ती भी सीधे भवसागर से पार होकर परम गति को प्राप्त कर लेता.. आचार्य शर्मा ने कहा कि माता पिता का कर्तव्य होना चाहिए कि अपने बच्चों का नाम देवी देवताओं के नाम पर रखे. आगे आचार्य जी भक्त प्रह्लाद की कथा सुनाए जिसे सुनकर सभी श्रोतागण गदगद और रोमांचित हो उठे l

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