हलचल… कब है होली, होली कब है….?

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कब है होली, होली कब है….?

होली की बहार है, शोले फिल्म के गाने अब सभी के जुबान में रहेंगे। गब्बर सिंह का डायलॉग भी याद रहना चाहिए जब वह अपने साथियों से चिल्लाकर पूछता है कब है होली, होली कब है…? लो आ गई होली। शोले फिल्म में गब्बर सिंह होली के इंतजार में रहता है। और जैसे ही होली आ जाती है…. नाच, गाने, जश्न के बीच वह बसंती को उठवा लेता है। गब्बर सिंह यह भली भांति जानता है कि बसंती को उठाने से बीरु उसे जरुर बचाने आयेगा, और वह गब्बर के जांल में फंस जाएगा। और अगर बीरु आया तो जय को भी आना ही पड़ेगा, हुआ भी कुछ ऐसा। लेकिन गब्बर सिंह तो बसंती को नाचते देखना चाहता था, ‘जब तक है जां, जाने जहां, मै नाचूंगी…. गाने में बसंती के पैर नहीं रुके, इस बीच गब्बर और उसके साथी कांच की शीशियां तोड़ते रहे, लेकिन बसंती नाचती रही। फिर क्या 15 अगस्त 1975 से आज तक, जब भी देश में होली का महौल दिखता है शोले के दृश्य और गाने चारों ओर गूंजते रहते हैं। फिल्म शुरु होने से पहले स्क्रीन में जो मैसेज आता है, उसका भी जिक्र मैं यहां करना चाहूंगा, स्क्रीन में साफ तौर पर लिखा रहता है कि घटना पूरी तरह से काल्पनिक है, इसका वास्तविक जीवन से कोई सम्बंध नहीं है। ठीक उसी तरह मेरे इस लेखन का दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल से कोई सम्बन्ध नहीं है। बुरा न मानो होली है…

आईएएस ‘नॉट कॉमन मैन’

यह तस्वीर देखिए, यह दृश्य एक कारोबारी और एक आईएएस अफसर का है। दोनों तस्वीर के दिन से अबतक जेल में हैं। कारोबारी और अधिकारी का याराना देखिए जेल जाते समय भी कंधे में हाथ हैं। दरअसल में यह तस्वीर उस दिन की है जब आईएएस समीर विश्नोई और कोयला करोबारी सुनील अग्रवाल को जेल दाखिल किया जा रहा था। ऐसा नहीं है कि मानवीय रुप से हमें इनके प्रति संवेदना नहीं है। लेकिन जब आप अपने दायरे से बाहर निकलते हैं, या अपने शक्तियों का गलत प्रयोग करते हैं, तो परिणाम कुछ ऐसे ही होने की गुंजाइश रहती है। आईएएस हमारे देश की सबसे महत्वपूर्ण सर्विस मानी जाती है। आईएएस बनने के बाद इंशान ‘कॉमन मैन’ नहीं बचता, इस हॉथ में अपार शक्तियां रहती है। सिस्टम चलाने की जिम्मेदारियां रहती हैं। कारोबारी को तो जादा मुफाना कमाना ही है, वह तो आपसे दोस्ती चाहेगा ही, सम्भलना आपको है। वरना कोयला कारोबारी का हाथ आईएएस के कंधों तक नहीं पहुंच पाता।

गंदा है, पर धंधा है

न पीने वाला इंशान शराब के धंधे को अच्छा नहीं मानता, लेकिन पीने वाले को धंधे से कोई मतलब नहीं। वह तो पीता ही है, फिर धंधा इधर वाला करे या उधर वाला। छत्तीसगढ़ में शराब का धंधा इतना चोखा है कि कई लोग जादा मुनाफा कमाने के चक्कर में सलाखों के पीछे पहुंच गए, कई तैयारी में हैं। लेकिन धंधा तो धंधा है, कोई न कोई तो करेगा ही। कहते हैं कि इस धंधे से जुड़े लोग और कारोबारियों के बीच फिर उथल- पुथल जारी हो गई है, जिसकी खबर दिल्ली दरवार तक पहुंच चुकी है। शराब का धंधा इन दिनों देश में इतना चर्चित हो गया है कि मुख्यमंत्री तक इस मामले में बच नहीं पा रहे। फिर भला ऐसे में इससे जुड़े हुए लोगों और नेताओं की खबर न रही जाए यह बेइमानी होगी। शायद इसीलिए इन दिनों इस ध्ंधे से जुड़े लोगों पर, रायपुर से दिल्ली तक की नजर है।

ताम्रध्वज साहू का अहंकार और समाज

राज्य में दो ऐसी घटनाएं हुई जिससे कांग्रेस को सत्ता गवांनी पड़ी। जिमसें से एक प्रमुख बिरनपुर की घटना है। दरअसल में साहू समाज की भूमिका राज्य के सियासी समीकरण में बेहद ही महत्वपूर्ण है। शायद इसीलिए कांग्रेस ने पूर्व गृहमंत्री ताम्रध्वज साहू को महासमुंद और राजेन्द्र साहू को दुर्ग से लोकसभा प्रत्याशी बनाया है। राजेन्द्र का तो पता नहीं, लेकिन ताम्रध्वज से साहू समाज बेहद खफा है। ताम्रध्वज साहू को इन दिनों बिरनपुर की घटना भारी पड़ रही है। पॉवर में रहते हुए वह साहू समाज के लोगों से अपनापन नहीं दिखा पाये, गृहमंत्री जैसे शक्तिशाली पद पर रहते हुए भी ताम्रध्वज भुनेश्वर साहू की हत्या के बाद बिरनपुर नहीं गए। सभी कांग्रेसी नेताओं की जिद में अहंकार दिखता रहा। लेकिन कहते हैं कि अहंकार में आदमी अंधा हो जाता है, शायद ताम्रध्वज साहू के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ। मंत्री रविन्द्र चौबे ने पीडि़त के दरवाजे पर पांव नहीं रखा, परिणाम सामने है। गृहमंत्री ताम्रध्वज साहू जो इसी समाज से आते हैं, वह भी दूरी बनाकर रखे हुए थे। घटना का सच क्या था? घटना क्यूं घटित हुई? यह सब तो जांच के विषय हैं। लेकिन उस क्षेत्र और उस समाज का नेता पीडि़त के दरवाजे पर न जाए, यह तो अंहकार ही है। अब ताम्रध्वज साहू एक बार फिर साहू समाज से वोट हासिल करने निकल पड़े हैं, उन्हें कितनी कामयाबी मिलेगी यह तो आने वाले दिनों में ही स्पष्ट हो सकेगा।

मरकाम, अनिला, लखमा और दीपक में से कौन ?

कांग्रेस सरकार के दो मंत्री ऐसे भी थे जिनका विवादों से कोई नाता नहीं रहा, उसमें से तीन माह के लिए मंत्री बनाए गए मोहन मरकाम का भी नाम शामिल है। विधानसभा चुनाव नजदीक आते ही मोहन मरकाम की संगठन से छुट्टी कर दी गई थी, और उन्हें महज 3 माह के लिए मंत्री बना दिया गया था। मरकाम और सिंहदेव ही ऐसे नेता हैं जिनका विवादों से कोई नाता नहीं रहा। बांकि मंत्रियों के हश्र आपके सामने हैं। कहतें है कि कांग्रेस कांकेर लोकसभा से मोहन मरकाम या फिर अनिला भेडिय़ा को प्रत्याशी बना सकती है। खैर कुछ लोकल उम्मीदवारों के नाम की भी चर्चा है। वहीं बस्तर से कवासी लखमा के पुत्र हरीश लखमा पर पेंच फंसा हुआ है, देखना यह है कि यहां से हरीश या फिर दीपक बैज को फिर मैदान में उतारा जाएगा। शायद इसी के चलते पायलट की भी लैंडिग बिना टिकट के हुई।

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