हलचल… यहां लठैत नेता स्वीकार्य नहीं

यहां लठैत नेता स्वीकार्य नहीं

कबीरदास जी के विचारों का अनुशरण करने वाले डॉ. चरणदास महंत को आखिर ऐसी क्या जरुरत पड़ गई कि वह भूपेश बघेल और देवेन्द्र यादव को लठैत नेता बताने से भी परहेज नहीं किये। दरअसल में महंत राजनांदगांव के चुनावी सभा में यह कहते नजर आये कि मोदी के सामने ऐसा नेता ही चाहिए जो लट्ठ लेकर खड़ा रहे, मोदी के सर पर लाठी मारने को तैयार रहे। यह काम भूपेश बघेल और देवेन्द्र यादव ही कर सकते हैं। कबीर दास जी तो कहतें हैं – ‘कबीरा खड़ा बाजार में, मांगे सबकी खैर। न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर’। तो भला महंत को लट्ठ और लट्ठमार नेताओं की जरुरत क्यों पड़ गई? खैर महंत क्या कहना चाहते थे? और लोगों ने क्या समझा? यह तो पता नहीं, लेकिन इस दरम्यान उन्होंने पूर्व सीएम भूपेश बघेल और देवेन्द्र यादव को लठैत नेता घोषित कर दिया है। महंत यह भली-भांति जानते हैं कि छत्तीसगढ़ की राजनीति में लट्ठमार राजनीति करने वाले नेताओं का कोई स्थान नहीं है। यहां तो सौम्य और सरल नेता ही लम्बी रेस की सवारी करते रहे हैं। स्वयं डॉ. चरणदास महंत इसके जीते-जागते उदाहरण हैं। महंत सौम्यता के कारण ही आज भी राजनीति में स्थापित हैं। महंत दो बार लोकसभा सांसद रहे, अविभाजित मध्यप्रदेश में मंत्री रहे, केन्द्रीय राज्यमंत्री रहे, प्रदेश कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष रहे, छत्तीसगढ़ विधानसभा के भी अध्यक्ष रहे और वर्तमान में राज्य के नेता प्रतिपक्ष हैं। महंत के अनुसार यदि यहां कि राजनीति में लट्ठमार नेताओं की स्वीकार्यता होती तो महंत की जगह भूपेश बघेल नेता प्रतिपक्ष होतेे। इतना हीं नहीं महंत की सौम्यता और सरलता के कारण ही उनकी धर्मपत्नि ज्योत्सना महंत घोर मोदी लहर के दौरान 2019 में कोरबा से लोकसभा चुनाव जीतने में सफल रहीं। वहीं सौम्य और सरल स्वभाव के डॉ. रमन सिंह 15 साल तक छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रहे। दिवंगत नेता मोतीलाल वोरा समेत अनेकों उदाहरण हैं, जिनके सरलता और सौम्यता की आज भी चर्चा होती है। वर्तमान सीएम विष्णुदेव साय सहजता और सरलता के कारण ही दो बार लोकसभा सांसद रहे, केन्द्रीय राज्यमंत्री रहे, अब वह राज्य के मुख्यमंत्री हैं। तब भी महंत को लठैत नेता क्यों चाहिए? यह तो महंत, भूपेश और भाजपा ही जानेंगे।

संइया भले कोतवाल तो फिर डर काहे का

कुछ विशेष लोग होते हैं, उनके पास विशेष गुण भी होतें है। हालांकि इस गुण के विरले लोग ही मिल पाते हैं। इस तरह के लोग आम तौर सभी पेसे में देखने को मिलते हैं। जाहिर सी बात है अफसरों की विरादरी में भी ऐसे लोग देखे जाते हैं। वैसे तो प्रशासनिक सेवा के क्षेत्र में आईएएस अफसरों का नम्बर उपर होता है, उसके बाद आईपीएस और फिर आईएफएस का स्थान आता है। यह बात अलग है कि सभी की अपनी-अपनी महत्वूपर्ण जिम्मेदारी होती है। लेकिन यहां पर बात कुछ विशेष गुणों वाले लोगों की हो रही है। पुरानी सरकार में इन पर कर्ताधर्ता का हांथ सर पर था और वर्तमान सरकार ने भी इन्हें हांथों-हांथ ले लिया है। जब विभाग विभाग के मुखिया का हांथ सर पर हो, तो फिर आईएफएस हो या आईएएस सब बराबर हो जाते हैं। शायद यही कारण हैं कि इनके कार्यालय में आईएएस अफसरों का घंटो तक जमघट लगता है। कमरे के बाहर गर्मी में भी धुंए का धुंध दिखाई देता है। कुल मिलाकर इनके लिए कहा जा सकता है सइंया भले कोतवाल तो डर काहे का।

ईमानदारी पर्याप्त नहीं

कहते हैं कि इन दिनों एक ईमानदार कहे जाने वाले आईएएस अफसर को ठीक-ठाक पोष्टिंग नहीं मिल पा रही है। वैसे तो इनके बारे में कहा जाता है कि यह बेहद ही इमानदार अफसर हैं और बहुत ही लो प्रोफाइल रहते हैं। हालांकि पूर्व की भूपेश सरकार ने इन्हें हाथों-हांथ लिया था। विशेष सचिव से सीधा चेयरमेन बना दिए गए थे। राज्य में सरकार बदली तो कुछ दिन नई सरकार में भी अच्छा खासा तवज्जो मिला। बाद में न जाने ऐसी क्या बात हुई कि इन्हें सीधा बाहर झटक दिया गया। हालांकि यह अफसर पूर्व में बहुत जादा किसी को इंटरटेन नहीं करते थे, लेकिन अब पद की चाह है, तो इंटरटेन तो करना पड़ेगा। जहां कभी नहीं गए, वहां भी चक्कर लगाना पड़ेगा। अब इनकी हालत देखकर कहा जा रहा है कि सिस्टम में बने रहने के लिए सिर्फ ईमानदार होना पर्याप्त नहीं है।

सांप भी मर गया और लाठी भी सलामत

राज्य में एक ऐसा विभाग है, जहां एक समय पर जमकर खेला हुआ करता था। मजबूर होकर ईडी नवा रायपुर स्थित इनके सरकारी कार्यालय में रात को घुस गई थी। आधीरात तक अफसरों से पूछताछ हुई। अब सत्ता बदल चुकी है, कुछ तो करना पड़ेगा, दाग तो धोने पड़ेंगे। तरकीब निकाली गई जिसमें फार्मुला वही पुराना है, बस खिलाडिय़ों के स्थान बदल दिए गए। मतलब अधिकारियों का मैचुअल ट्रांसफर कर दिया गया। अब रायपुर वाला कहीं बाहर चल दिया और कहीं बाहर वाला रायपुर आ गया। ऊपर जो पहले से बैठे हैं, वह आज भी विराजमान हैं। अब उन्हें तो पुरानी कहानी मालूम ही है, इसलिए न यहां वाला बच सकता है और न वहां वाला बचने की कोशिश कर पायेगा। कुल मिलाकार सांप भी मर गया और लाठी भी सलामत है।

एसीबी का एक्शन

पिछले पांच साल तक शांत बैठी एसीबी का एक्शन अब दिखने लगा है। आईपीएस अमरेश मिश्रा के कमान सम्भालते ही भ्रष्टाचार और भ्रष्ट अफसरों की ट्रेंकिंग बढ़ गई है। बीते गुरुवार को पीएचई कार्यालय में दबिश देकर एक एसडीओ को रिश्वत लेते गिरफ्तार किया गया। अब जगह-जगह में एसीबी और ईओडबल्यू के दबिश की खबरें दिखने लगी हैं। पटवारी से लेकर छोटे-बड़े अफसरों में इसको लेकर चर्चाएं होने लगी है। जाहिर सी बात है यदि एसीबी एक्टिव रही तो खुले तौर पर हो रहे भ्रष्टाचार पर लगाम लगेगा। हालांकि विभागों में व्याप्त भ्रष्टाचार पर इसका असर कब होगा यह फिलहाल अभी कुछ कहा नहीं जा सकता। इसके पूर्व एसीबी पर भाजपा नेता अजय चंन्द्राकर गंभीर आरोप लगाते रहे हैं। अब अमरेश के इस रुख से खुलेआम रिश्वतखोरी का चलन थोड़ा कम होगा।

बिक गए पीबीआर

आपने पीवीआर में फिल्मों का आनंद लिया होगा। लग्जरी कुर्सियों में बैठकर पीवीआर में नई-पुरानी फिल्में देखीं होगी। लेकिन जारा सोचिए की पीबीआर बिक जाए तो क्या होगा? पीबीआर की क्वालिटी खराब हो जाए तो क्या होगा? दरअसल में आपके लिए पीवीआर फिल्मों को देखने का स्थान हैं, लेकिन उनके लिए पीबीआर रुपये कमाने का जरिया है। वह 100 किलोमीटर दूर जाने से पहले वेट देखते हैं। लैंड करने से पहले 4 किलोमीटर तक का सफर तय कर लेते हैं। फिलहाल आप पीवीआर में टिकटें बिकते देखते हैं, यहां पीबीआर ही बेंच दिए जाते हैं। इसलिए पीबीआर को छोडि़ए, फिल्मों का आनंद उठाइये।

 

editor.pioneerraipur@gmail.com

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