‘पशु धन’ का महामहोत्सव “पोला”– अजीत पांडेय सामाजिक कार्यकर्ता चंद्रपुर

6 सितंबर को छत्तीसगढ़ की संस्कृति के महापर्व पोला पर हुई पूजा अर्चना

सक्ती-पोला (पोरा) छत्तीसगढ़ के पर्वो का महापर्व कृषि धन का महत्वपूर्ण भाग “पशु धन” का महामहोत्सव, आज 06 सितंबर को यथार्थ के धरातल से परे सिर्फ रंगीन आकृतियों, शुभकामना सन्देश संग फेसबुक, इंस्टाग्राम और व्हाट्सअप पर सॉफ्ट कंटेंट में बस वायरल हो रहा।

हमने इस त्यौहार का एक अलग ही रूप देखा है, वही स्वरूप इसे छत्तीसगढ़ की माटी- सांस्कृति से जोड़ता है।
याद है,, जब हफ़्तों पहले हम बच्चे मिट्टी के बैलो के पहियों में पत्थर के छोटे छोटे दाने डालने (अरहर सरीखें) इकट्ठे कर लेते थे, मुरुम आदि के ये दाने मिट्टी की गलियों, पगडंडियों के ऊबड़खाबड़ पर मिट्टी के बैलों के पहियो से लुढ़कने से खनकती आवाज देते,दादा जी सुबह से ही पूजा के रोज या एक रोज पहले  घरेलू नौकर से कच्चे बॉस का टुकड़ा मंगा कर, जुट की रस्सी संग बैलो के पहिये आदि व्यवस्थित करते या, कराते थे। हम भी बिल्कुल “देसी इंजीनयर” बन डटे रहते और पहियो में गोटियों के डाले जाने से, रस्सी की गांठ, बांस की लचक तक एक एक हुनर को ताड़ते रहते,, पूजा बाद कुछ देर के सफर बाद फिर उसकी जरूरत पड़नी होती थी इस बात से हम अच्छे से परिचित रहते थे।
पूजा समय कूद फांद कर ‘चिरैया’ (गांव में बारिस में सुलभ फूल) फूलो की माला से सजे, लंबी डोर से बंधे बैलो के पूजा वक़्त चावल, सिंदूर आदि के लेप से सज जाने बाद, बैलो के पूजन हो निकलने का इंतजार रहता,पूजा होते ही,,हफ़्तों पहले रंगीन साफ धुले कपड़ो के टुकड़े से, हाथो से सिली थैली को बैलो के गले मे लटका घर मे पूजा को बने खुरमी, गुचकुलिया आदि पारम्परिक पकवान से भर सफर शुरू होता घूमने का। बैलो के गले मे लटका थैला बीच बीच मे हमसे खुलता और हम पकवानों की मिठास लेते,, पकवान खत्म होते ही तत्काल दादी माँ, मम्मी से और कि मांग हमेशा की आदत रहती,कुछ देर के बचपने के कूद फांद के सफर बाद या तुरन्त ही मिट्टी के बैलो का घायल हो जाना आम बात थी। फिर हम इंजीनयर से अपने बैलो और छोटे भाई- बहन के बैलो के साथ मरहमपट्टी, खपच्ची बांधने का ‘आयुर्वेदाचार्य’ वाला सफर करते। अक्सर एकाध बैल ज्यादा होते तो उपचार से पहले उसे ही आजमाया जाता। कभी कभी हमारी विशेष सिफारिश पर दादा जी कुम्हारों से बैलो के साथ साथ हाथी, घोड़े की आकृति वाले भी मिट्टी के खिलौने मंगवाया करते उस ‘सुपरकाम्प्लेक्स’ में तब अडाणी, अम्बानी वाला भाव अलग ही रहता,खैर..: अब तो गांवो से वास्तविक गौ वंशी पशुधन ‘बैल’ भी गायब हो रहे और पोला के मिट्टी के बैल सॉफ्ट कंटेंट पर दौड़ रहे, संस्कृति सभ्यता का परिचायक पर्व पोला रंगीन बैलाकृत फ़ोटो तक सिमटने लगा है,, खुरमी, गुचकुलिया का स्वाद भी बच्चे भूल रहे।

शेयर करें

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *