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रमन मुख्यमंत्री नहीं, तो क्या?
राज्य में नये सीएम फेस को लेकर लगातार कायासों का दौर जारी है। संभव है कि केन्द्रीय नेतृत्व मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान तीनों जगह नया सीएम चेहरा सामने लेकर आये। वहीं यदि मध्यप्रदेश में शिवराज, राजस्थान में बसुंधरा को नहीं बदला गया, तो छत्तीसगढ़ में शायद ही रमन को बदला जाए। खैर इसका खुलासा अब बहुत ही जल्द होने वाला है। इस बीच आम जन के जेहन में एक सवाल घूम रहा है ‘रमन यदि मुख्यमंत्री नहीं, तो क्या? दरअसल में रमन सिंह ने विधानसभा चुनाव पूर्व राज्यपाल बनने में रुचि नहीं दिखाया था, उन्होंने साफ तौर पर कहा था कि वह राज्य में जनता की सेवा करेेंगे। ऐसे में डॉ. रमन सिंह को विधानसभा अध्यक्ष की जबाबदारी कैसे दी जा सकती है? या रमन सिंह जिन्होंने राज्यपाल बनने से इंकार कर दिया था, वह विधानसभा अध्यक्ष के लिए कैसे तैयार होंगे? वहीं अभी तक जितने लोगों का नाम राज्य के सीएम के लिए सामने आ रहा है, उसमें से जादातर रमन मंत्रीमण्डल के सदस्य रह चुके हैं या उनसे कहीं जूनियर हैं। इन हालातों में 15 साल के मुख्यमंत्री रहे डॉ. रमन सिंह को उनके अधीन मंत्री भी नहीं बनाया जा सकता। यहीं नहीं मोदी -2 में डॉ रमन सिंह को केन्द्र में भी जबाबदारी नहीें दी गई, तो सम्भव है कि 4 माह के लिए भी नहीं दी जाएगी। ऐसे हालातों में डॉ रमन सिंह को क्या भाजपा सिर्फ विधायक बनाकर छोड़ देगी? या अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव तक उनके अनुभवों का लाभ लेगी। फिलहाल यह मोदी मैजिक का दौर है, यहां सब सम्भव है।
अहम का परिणाम
राज्य की जनता भूपेश सरकार के मंत्रियों से बेहद खफा नजर आई, यहां की जनता भूपेश सरकार के मंत्रियों से उतना ही खफा है, जितना रमन -3 के दौरान उनके मंत्रियों से खफा थी। रमन-3 (2018 के दौरान) में आठ मंत्री चुनाव हार गए थे। वहीं डॉ. रमन सिंह चुनाव जीतने में सफल हुए थे। 2018 और 2023 का चुनाव परिणाम मंत्रियों के लिहाल से एक जैसा है। तब भी सीएम रमन सिंह चुनाव जीतकर आये और अब भी सीएम भूपेश चुनाव जीतने में सफल हुए। मंत्री तब भी धराशयी हुए और इसबार भी। दरअसल में भूपेश मंत्रीमंडल के सदस्यों में रमन-3 के मंत्रियों की छाया दिखने लगी थी। उस समय भी उन मंत्रियों का अहम विधानसभा की दहलीज तक पहुंचने में बाधक बना और शायद इस बार भी। यदि ऐसा नहीं होता तो रविन्द्र चौबे जैसे राजनीतिक अनुभव रखने वाले नेता को एक मजदूरी करने वाले सामान्य व्यक्ति ईश्वर साहू पटकनी नहीं देते। यदि ऐसा नहीं होता तो अमरजीत भगत तो मूंछे मुड़वाने की नौबत नहीं आती। यदि ऐसा नहीं होता तो कथित विकास पुरुष शिव डहरिया को खुशवंत गुरु पहली बार में चारों खाने चित नहीं कर देते। भूपेश सरकार के सबसे अनुभव वाले उम्रदराज मंत्री ताम्रध्वज साहू नरेन्द्र मोदी जैसे विशाल लोकप्रिय नेता को दुर्ग ग्रामीण से चुनाव लडऩे की चुनौती नहीं देते। मोदी तो दूर दुर्ग का एक समान्य भाजपा कार्यकर्ता ताम्रध्वज साहू को घर बैठा दिया। ऐसे ही अनेकों उदाहरण 2018 के भी मौजूद हैं, जिनसे आप और हम अवगत हैं। इसलिए मंत्रियों को 2018 और 2023 के चुनाव परिणााम से सीख लेने की अत्यंत जरुरत है।
बुलडोजर
भाजपा के बहुमत में आते ही जहां प्रदेश के आईएएस विरादरी में सन्नाटा पसरा हुआ है, वहीं दूसरी ओर युवा आईएएस, रायपुर नगर निगम के कमिश्नर मयंक चतुवेर्दी बुलडोजर लेकर निकल पड़े हैं। राजधानी में बुलडोजर के निकलते ही राज्य के अन्य जिलों में भी अफसर अवैध कब्जाधारियों और गुंडागर्दी करने वाले तत्वों के खिलाफ सख्त रुप अपनाना शुरु कर दिये है। कहते हैं कि राज्य में कांग्रेस की सरकार रहते हुए भी आईएएस मयंक चतुर्वेर्दी और महापौर ढेबर में विचारों को लेकर ठनी हुई थी। शायद इसीलिए मीडिया में महापौर ढेबर और कमिश्नर के कार्यों में लगातार विरोधाभाष देखने को मिलता रहा। कई बार मयंक और ढेबर में कहा-सुनी भी हुई। कहीं न कहीं कांग्रेस सरकार के दबाव में आईएएस मयंक चतुवेर्दी खुलकर काम नहीं कर पा रहे थे। अब राज्य में भाजपा की सरकार बनते ही सरकारी जमीन पर अवैध कब्जा करने वाले लोग भागते फिर रहे हैं। वैसे भी मयंक जिस इलाके के रहने वाले हैं, वहां पर बुलडोजर का बड़ा खौफ है। शायद यहीं कारण है कि राज्य में नई सरकार का गठन भी नहीं हुआ, आईएएस मयंक चतुर्वेर्दी का बुलडोजर शहर में अवैध कब्जाधारियों, गुंडा प्रवृत्ति के लोगों पर कहर बनकर टूट पड़ा है।
कांटे की टक्टर के बीच खर्च किए 50 करोड़ रुपये
राज्य की एक विधानसभा सीट इस चुनाव का मुख्य केन्द्र बिन्दु बनी रही, हर व्यक्ति यह पूछते नजर आते रहा मंत्रीजी का क्या होगा? लोग पूछते भी क्या होगा? और कहते भी कि मंत्री जी का मैनेजमेन्ट बड़ा शानदार है, वह चुनाव निकाल लेंगे। खैर इन मंत्री जी के क्षेत्र के मतदाता कहीं जादा होसियार निकले। क्षेत्र की जनता आचार संहिता लगते ही कांटे की टक्कर बताना शुरु कर दी। मतदाताओं का मूड देखकर मंत्री जी ने सोचा कि अब तो मैनेजमेन्ट का जादू चल निकलेगा। कहते हैं कि एक -एक मतदाताओं को रिझाने में औसतन पांच हजार रुपये तक खर्च किए गए। क्षेत्र के मतदाता बड़े ही होसियार, लाभ लेने के बाद भी कहते कांटे की टक्कर है। कई बार ऐसा लगता कि इतनेे कांटे की टक्टर में कहीं कांटा ही न टूट जाए। हैरत तो तब हुई जब मतदान के दिन भी लोग कांटे की टक्कर बताते रहे। मतदाता वोट डालकर बाहर निकले और कहे कांटे की टक्कर है, इन हालातो में बड़ा से बड़ा राजनीतिक ज्ञान रखने वाले नेता का भी उलझन में पडऩा स्वाभाविक हैै। मंत्रीजी के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। कहते हैं कि चुनाव के दिन भी और स्टाक मगाया गया वह भी झर्र हो गया। लेकिन चुनाव परिणाम आते तक मतदाता सिर्फ कांटे की टक्कर ही बताते रहा। 3 दिसम्बर को जब चुनाव परिणाम सामने आया तो मंत्री जी भागते नजर आए। मतदाता अब भी होसियार, कहते हैं कि कांटे की टक्कर के बीच मंत्री के काली कमाई का कुछ हिस्सा छीन लिया तो इसमें बुराई क्या है?
बैक डेट पर फाइल करने पर रमन ने क्यों किया फायर
भाजपा के बहुमत में आने के बाद जहां सभी नेता दिल्ली परिक्रमा में लगे हुए हैं, वहां रमन प्रशासनिक अफसरों पर गर्जते नजर आये। दरअसल में रमन को भनक लगी कि कुछ अफसर अपने विभागों में बैक डेट में फाइलें स्वीकृत कराई हैं। पांच साल तक सत्ता के नजदीक बैठे यह अफसर यह नहीं समझ पा रहे हैं कि 15 साल में रमन ने भी कुछ अफसरों को अपने पाले में रखा होगा। खैर बैक डेट में की गई फाइलों की पूरी जांच होगी। ऐसा करने वाले अफसर भरोसा के साथ अपनी कुर्सी भी गवां सकते हैं।
राजनीतिक शूटर
पिछले पांच साल में रामानुजगंज से विधायक रहे बृहस्पति सिंह की भूमिका विधायक की कम राजनीतिक शूटर की जादा रही। वह रामानुजगंज की राजनीति से निकलकर कब राजनीतिक फायर करने करने लगे किसी को भनक नहीं लगी। बृहस्पति सिंह ने सबसे पहले अपने ही क्षेत्र के प्रभावशील नेता उपमुख्यमंत्री रहे टीएस सिंहदेव को राजनीतिक रुप से छलनी कर दिया। शब्दों की गोलियों से उन्होंने सिंहदेव के चरित्र को लहूलुहान कर दिया। सिंहदेव जैसे नेता पर हत्या करवाने के संगीन आरोप लगाए गए। उसके बाद भी कांग्रेस पार्टी ने उन्हें तवज्जो दिया। अफसरों के साथ बृहस्पिति ने जैसा बर्ताव किया उसके आडियो सब सुनकर दंग रहे। सत्ता के नशे में चूर बृहस्पिति सिंह ने अहंकार की सारी सीमाएं लांघी, लेकिन कांग्रेस पार्टी का नेतृत्व मूक बनकर तामासा देखता रहा। बृहस्पति सिंह अब फिर एक बार फायर कर रहे हैं, उनके निशाने में सिंहदेव तो हैं ही, शैलजा भी उनके शब्दों की गोलियों की शिकार हो रही हैं। कांग्रेस पार्टी पिछले पांच साल में छोटे-छोटे नेताओं पर अनुशासनात्मक कारवाई करते रही, लेकिन बृहस्पति सिंह जैसे संरक्षण प्राप्त राजनीतिक शूटर अभी भी घूम रहे हैं, आखिर कांग्रेस आलाकमान इन पर कब कार्यवाही करेगा।
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