हलचल… भाजपा का प्लान ‘बी’ ?

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कांटे की टक्कर के बीच बहुमत किसे?

 

 

 

 

राज्य में विधानसभा चुनाव सम्पन्न हो चुके हैं। 3 दिसम्बर को परिणाम आना शेष है। ऐसे में कांग्रेस और भाजपा दोनों दल अपनी-अपनी सरकार बनाने का दावा कर रहे हैं। पहली बार मतदान सम्पन्न होने के बाद भी अभी तक यह कह पाना बेहद कठिन है कि राज्य में किसकी सरकार बनने जा रही है। दरअसल में इसके पीछे प्रमुख वजह है दोनों दलों का घोषणा पत्र, इस बार के चुनाव में जनता प्रत्याशियों से जादा घोषणा पत्र में किए गए वादों को लेकर मंथन करते दिखी, जिसके चलते 6 माह पहले तक सत्ता से दूर नजर आने वाली भाजपा कांटे की टक्टर में पहुंच गई। इस बार के विधानसभा चुनाव में राज्य की हर एक सीट पर कड़ा मुकाबला देखा जा रहा है, ऐसे में प्रत्याशियों की जीत- हार बहुत ही कम वोटों से होगी। फिलहाल कांटे की टक्कर के बीच जनता -जनार्दन कौन से दल को राज्य की कमान सौंपने जा रही है, इसका खुलासा 3 दिसम्बर को चुनाव परिणाम के बाद ही हो सकेगा।

रसिक परमार ने बंद रखा अपने दरवाजे

छत्तीसगढ़ में भाजपा की नीति को लेकर राज्य के पत्रकार पहले भी सवाल खड़े करते रहे है। 2023 के इस विधानसभा चुनाव में भाजपा का दोहरा चरित्र एकबार फि र बेनकाब हो गया। इस चुनाव में मीडिया का प्रबंधन सम्भाल रहे रसिक परमार ने राज्य भाजपा नेताओं और पत्रकारों के बीच और गहरी खाई खोद दी। दरअसल में यह बात हम नहीं कह रहे रसिक परमार के कक्ष के बाहर चस्पा यह तस्वीर स्वयं इस बात को बयां कर रही है। भाजपा ने परमार को मीडिया प्रबंधन की जिम्मेदारी सौपी, लेकिन रसिक परमार ने मतदान तक अपने कक्ष में पत्रकारों के प्रवेश को ही निषेध रखा। यह अपने आप में एक अलग तरह का मीडिया प्रबंधन है, जो सिर्फ छत्तीसगढ़ भाजपा में ही देखा जा रहा है। 90 प्रतिशत पत्रकार और मीडिया संस्थान रसिक और राज्य भाजपा के इस प्रबंधन से काफी खफा हैं। यह बात अलग है कि बहुत से प्रत्याशियों ने पिछले पांच साल में जमकर पसीने बहाए जिसकी वजह से भाजपा 2018 के चुनाव परणिाम की अपेक्षा 2 गुना से भी जादा बढत बनाते दिख रही है। इस बढ़त में प्रबंधन सम्भाल रहे नेताओं की कहीं कोई भूमिका नहीं है। यह बढ़़त सिर्फ प्रत्याशियों की मेहनत की बदौलत है।

भाजपा का प्लान ‘बी’ ?

कहते हैं कि माथुर को आभाश हो चुका है कि राज्य में भाजपा को बहुमत नहीं मिल रहा। लेकिन उसके बाद भी भाजपा नेता छत्तीसगढ़ में सरकार बनाने का दावा कर रहे हैं? आखिर उसके पीछे क्या वजह है? क्या भाजपा मध्यप्रदेश की तरह 2023 में छत्तीसगढ़ में कुछ राजनीतिक उठापटक करने जा रही है? फिलहाल ऐसी सम्भावनाओं से इनकार नहीं किया जा सकता। कहते हैं कि माथुर ने आलाकमान को किसी भी हालात में छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकार बनाने का वादा किया है। ऐसे में माथुर और भाजपा का प्लान ‘बी’ भी तैयार है। प्लान ‘बी’ के तहत कांटे की टक्टर के बीच भाजपा को सरकार बनाने के लिए 5 से 6 सीटों की और जरुरत पड़ सकती है। ऐसे में 5 से 6 सीटों की जुगत का गुणा भाग शुरु हो चुका है। इस गुणा- भााग में कितना दम है यह तो भाजपाई ही जानेंगे, लेकिन मतदान के दिन से ही भाजपा ने प्लान ‘बी’ पर काम करना शुरु कर दिया है।

2018 की तरह इस बार भी कई मंत्री मुसीबत में

छत्तीसगढ़ की जनता को भले ही कांग्रेस सरकार की योजनाओं ने खूब आकार्षित किया हो। लेकिन इस दौरान राज्य के मंत्रियों के ऊपर ठीक वैसे ही नाराजगी दिख रही है, जैसे 2018 में रमन मंत्रीमंडल के सदस्यों के उपर दिखी थी। शायद यही कारण है कि भूपेश सरकार के पहली कतार के नेता मंत्री रविन्द्र चौबे, मोहम्मद अकबर, मोहन मरकाम, अमरजीत भगत, गुरु रुद्रकुमार, कवासी लखमा, अनिला भेडिय़ा समेत अन्य को इस विधानसभा चुनाव में कडी टक्टर मिल रही है। इन नेताओं की सीटों में कांटे की टक्कर बताई जा रही है। ऐसे में परिणाम क्या होंगे कुछ कहा नहीं जा सकता। 2018 के चुनाव परिणाम में रमन मंत्रीमंडल के कई सदस्य विधानसभा चुनाव हार गए थेे, जबकि चुनावी प्रबंधन और अन्य दांव-पेंच में वर्तमान मंत्रियों से किसी भी लिहाज से वह भी कमजोर नहीं थे। फिलहाल भूपेश सरकार के इन मंत्रियों को 3 दिसम्बर का बेसब्री से इंतजार है।

मोदी की गारंटी का क्या?

राज्य के भाजपा नेता विश्वास के गहरे संकट से जूझ रहे हैं। यदि यह संकट नहीं होता तो शायद छत्तीसगढ़ में मोदी की गांरटी की जरुरत न पड़ती। खैर मोदी की गारंटी राज्य में कितना प्रभावी होने जा रही है इसका खुलासा 3 दिसम्बर को होने जा रहा है। आम जनता मोदी की गांरटी को स्वीकार करेगी या नकार देगी यह तो चुनाव परिणाम ही तय करेंगे। हां यह बात जरुर है कि मोदी की इस गांरटी ने राज्यों में लीडरशिप को खत्म कर दिया है। 2023 के इस विधानसभा चुनाव में 15 साल के मुख्यमंत्री रहे डॉ. रमन सिंह, अपराजेय योद्धा बृजमोहन अग्रवाल जैसे नेताओं को सिर्फ उनके निर्वाचन क्षेत्र तक सीमित रखना इसका जीता- जागता उदाहरण है। माथुर, नितिन नबीन, और सिद्वार्थ सिंह जैसे बाहरी नेता पूरे चुनाव में स्थानीय नेताओं को हांकते रहे। ऐसे में मोदी की गारंटी कितना प्रभावी होगी यह तो निकट भविष्य में ही पता लग सकेगा।

राजनीति वास्तव में भाग्य का ही खेल है

कहते हैं कि राजनीति के खेल में भाग्य का बडा योगदान होता है। जब भाग्य में राजयोग लिखा होता है, तो वह खुद चलकर पास आ जाता है। ऐसा ही दृश्य रायपुर उत्तर के भाजपा प्रत्याशी पुरंदर मिश्रा के साथ देखा जा रहा है। पुरंदर मिश्रा भगवान जगन्नाथ के भक्त हैं, यह हर कोई जानता है। लेकिन पुरंदर मिश्रा को रायपुर की राजनीति में कभी किसी ने सक्रिय नहीं देखा। पुरंदर बसना-सरायपाली में राजनीतिक रुप से सक्रिय रहे और पिछले दो दशक से वह बसना विधानसभा क्षेत्र के लिए भाजपा से टिकट की दावेदारी भी करते रहे। लेकिन उन्हे मौका नहीं मिला। आश्चर्य की बात यह है कि पुरंदर मिश्रा न कभी रायपुर की राजनीति में सक्रिय रहे, और न ही वे कभी यहां से छोटा या बड़ा कोई चुनाव लडे (सरपंच से लेकर पार्षद तक का) कुल मिलाकर पुरंदर के पास चुनाव लडऩे का भी कोई अनुभव नहीं था, जाहिर सी बात है पुरंदर मिश्रा ने रायपुर उत्तर से टिकट की दावेदारी भी नहीं की, और न ही किसी सर्वे में पुरंदर मिश्रा का नाम था। फिर भी उन्हें रायपुर उत्तर से भाजपा ने टिकट दे दिया। बिना मांगे टिकट पाना, बिना अनुभव के चुनाव लडऩा और मजबूत प्रत्याशी के रुप में उभरकर सामने आना निश्चित ही यह किश्मत का खेल है। वर्तमान परिदृश्यों की बात की जाए तो रायपुर की चारों सीटों में से बृजमोहन अग्रवाल के बाद यदि किसी सीट में भाजपा मजबूत दिख रही है, तो वह है है पुरंदर मिश्रा की सीट। फिलहाल परिणाम क्या होंगे यह तो पुरंदर को टिकट दिलाने वाले जगन्नाथ ही जानेंगे।

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