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तो जमीन कम पड़ जाएगी…
छत्तीसगढ़ एक ऐसा राज्य है जहां पर वन विभाग द्वारा व्यापक पैमाने पर पौधारोपण किया जाता है। हर साल पौधारोपण के आकड़े निकाले जाएं तो राज्य में इतने पौधे रोपित किए गए हैं कि यहां की जमीन छोटी पड़ जाएगी। सरकारी आकड़ों की मानें तो यहां पर तकरीबन 42 प्रतिशत फॉरेस्ट है। फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया के 2017 के आकड़ों की बात करें तो यहां पर 116,85,74,000 पेड़ हैं, हालांकि बीते सात वर्षों में यह आकड़े बढ़े या घटे भी हो सकते है। इसके साथ ही अब तक विभाग द्वारा 60 से 70 करोड़ के आसपास पौधारोपण का अभियान चलाया जा चुका है। अर्थात प्रति व्यक्ति 28 पौधारोपण किया गया है। इन आकड़ों को देखकर धरातल के वास्तविक स्थिति का भी मुआयना किया जाना चाहिए। दरअसल में विभाग द्वारा व्यापक पैमाने पर पौधारोपण तो किया जाता है, लेकिन धरातल में कुछ ही पौधे जीवित बचते हैं। नियमानुसार प्रत्येक वर्ष 20 जुलाई तक पौधारोपण का काम समाप्त हो जाना चाहिए। वहीं इसके लिए 3 माह पहले गड्ढे खुद जाने चाहिए, और एक साल पहले भूमि का चयन किया जाना जाहिए, ताकि भूमि के अनुसार पौधों की प्रजाति का चयन हो सके। लेकिन यह एक अनोखा और अदभुत विभाग है जहां समाप्ति की तिथि नजदीक आने के बाद महाअभियान चलाने की तैयारी की जा रही है। जिसमें भी बीज निगम कुछ और कह रहा है, और पौधे कुछ और बयां कर रहे हैं।
लोकप्रिय कलेक्टर
राज्य में अभी तक नेता लोकप्रिय होते रहे हैं, लेकिन इन दिनों एक कलेक्टर साहब की लोकप्रियता परवान चढ़ रही है। दरअसल में जब राजनेता कमजोर होते हैं तो अफसरों की लोकप्रियता अपने आप बढऩे लगती है, ऐसा ही कुछ यहां हो रहा है। कभी यहां पर एक क़द्दावर नेता की तूती बोलती थी, उनके विशेष सहायक की कलेक्टरी में सीधा दखल होता था, अब हालत यह हैं कि नेताजी की ही पूछ परख गायब होते जा रही है, तो भला उनके सहायक की कौन सुनने वाला है। इसका सीधा प्रभाव कलेक्टर साहब के लोकप्रियता में पड़ रहा है। पहले शहर की कोई समस्या या जरुरत होती थी तो जनता नेताजी के दरवाजे में दिखाई देती थी, अब वैसी भीड़ नहीं दिखती। जाहिर सी बात है, जब राजनेता काम न करा पायेंगे, तो जनता को अफसरों के दरवाजे जाना पड़ेगा। खैर नेता जी के और कलेक्टर साहब के गुणों में भारी समानता है, नेताजी भी किसी को न नहीं बोलते और कलेक्टर साहब भी न कहने से परहेज करते हैं। ऐसे में भला कलेक्टर साहब की लोकप्रियता को कौन रोक सकता है।
हे ईश्वर…
ईश्वर कभी पीडि़त थे, आज भी उन्हें न्याय नहीं मिला है, इसलिए सम्भवत: अभी भी वह पीडि़त ही कहलांएगे। लेकिन उनके और उनके भाई के कारनामे इन दिनों चर्चा का केन्द्र बने हुए हैं। पार्टी ने उन्हें टिकट दे दिया, वह सिम्पैथी में चुनाव भी जीत गए। लेकिन कारनामों की चर्चा ऐसी हो रही है कि लोग अब कहना चालू कर दिए हैं, हे ईश्वर आगे इस क्षेत्र का क्या होगा? इस क्षेत्र ही नहीं इसके आस-पास के क्षेत्रों में भी अब सब ईश्वर के भरोसे ही चलता दिख रहा है।
हिमांशु या अरुणदेव
डीजीपी अशोक जुनेजा के अगले माह रिटायर होने के पहले राज्य में डीजीपी के लिए शांत स्वाभाव के हिमांशु गुप्ता का नाम प्रमुखता से चर्चा में है। पिछली सरकार में हिमांशु खुफिया चीफ भी रह चुके हैं। वहीं हिमांशु गुप्ता के साथ अरुणदेव गौतम के नाम की भी चर्चा चल रही है। कुल मिलाकर पवनदेव इस रेस से बाहर होते दिख रहे हैं। मौजूदा हालात को देखकर यह कहा जा रहा है कि हिमांशु गुप्ता या अरुणदेव गौतम में से किसी एक को राज्य पुलिस की कमान सौंपी जा सकती है।
सहमे-सहमे से माननीय
इन दिनों माननीय सहमें-सहमें दिख रहे हैं। यह बात अलग है कि भाजपा की सुशासन वाली विष्णु सरकार के अभी महज 6-7 माह ही बीते हैं, ऐसे में इतना हतासा ठीक नहीं है। सरकार के लिए अभी काम करने के लिए पर्याप्त समय है, बीते छ: माह में विष्णु सरकार मोदी की गारंटी को पूरा करने में सफल हुई है। इसलिए इतना जल्दबाजी में मुल्यांकन करना भी उचित नहीं है। लेकिन माननीयों की अपनी चिंता भी कुछ हद तक वाजिव है, 5 साल में से पहला साल रेत की तरह फिसल रहा है। जिसमें अभी नगरीय निकाय और पंचायतों के चुनाव भी होने हैं, ऐसे में माननीयों के पास काम करने के लिए 3 साल ही बचते हैं, उसके बाद आखिरी साल फिर चुनावी तैयारी में जुटना पड़ता है। बहरहाल यह चिंता क्यों है? यह डर क्यों हैं? इस पर मंथन और चिंतन की जरुरत है।
कॉकस से घिरते नजर आ रहे गृहमंत्री
विधानसभा चुनाव में विजय शर्मा के लिए जनता स्वयं चुनावी मैदान में उतर गई। विजय शर्मा राज्य के एकमात्र ऐसे नेता होंगे जिनके लिए कार्यकर्ताओंं ने स्वयं से चुनाव के लिए पैसे इकट्ठे किए, यह बात अलग है कि विजय शर्मा ने यह राशि उसी क्षेत्र के कार्यकर्ताओं को सौंप दी। शुरुआती में विजय शर्मा की सहजता सभी वर्ग को भाने लगी थी, कवर्धा के साथ ही विजय राजधानी में भी चर्चा के प्रमुख केन्द्र बिन्दु बने हुए थे। लेकिन कहते हैं कि सिस्टम में कुछ ध्यान खुद को भी देने की आवश्यकता होती है। विजय शर्मा वर्तमान में कवर्धा के विधायक के साथ ही राज्य के उपमुख्यमंत्री हैं, ऐसे में उनके क्षेत्र के अलावा भी राज्य के हर कोने सेे, हर वर्ग के लोग उनके दरबार में पहुंचते हैं। लेकिन शर्मा के आस-पास का घेरा, उन्हें लोगों से दूर करने की भूमिका निभा रहा है। जिसके कारण लोग दबे स्वर में यह कहने लगे हैं कि विजय शर्मा भाजपा के वह कार्यकर्ता हैं जो कि जमीन में चैपाल लगाने बैठ जाते थे, पेड़ के नीचे गमछा डालकर आराम कर लेते हैं। लेकिन अब उनके इर्द-गिर्द के लोग कहीं न कहीं उन्हें आम जनता से दूर करते नजर आ रहे हैं।
बारात के घोड़े कौन?
विपक्ष के नेता राहुल गांधी में इन दिनों भारी बदलाव देखा जा रहा है। राहुल ने गुजरात में दो टूक कहा कि एक दौडऩे वाला घोड़ा होता है और दूसरा बारात का घोड़ा। उन्होंने साफ तौर पर यह संदेश दिया कि अब बारात वाले घोड़ों के दिन लदने वाले हैं, उनके साथ सिर्फ दौडऩे वाले घोड़े ही चल सकेंगे। राहुल के इस बयान का छत्तीसगढ़ की राजनीति में किस तरह का असर होगा, यह निकट भविष्य में ही स्पष्ट हो सकेगा। राहुल का बयान पूरे देश के कांग्रेसी नेताओं को चेतावनी के रूप में लेनी चाहिए। छत्तीसगढ़ की राजनीतिक परिदृश्य में बात की जाए तो पांच साल सत्ता की मलाई खाने वाले ज्यादातर नेता और मंत्री राहुल गांधी की भाषा में बारात के घोड़े साबित हो रहे हैं। सरकार जाने के बाद यहां पर कुछ नेताओं को छोड़ दें तो चारों ओर खामोशी दिखाई दे रही है, सन्नाटा पसरा हुआ है। राहुल गांधी के मापदण्ड में इनमें से कौन-कौन से नेता बारात के घोड़े बनने जा रहे हैं? और कौन दौडऩे वाले घोड़ा साबित होंगे, यह तो उनके तेवर ही तय करेंगे।
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